भारतीय संस्कृति का प्रतिबम्ब: जापान

जब किसी विदेशी का संस्पर्श परायी संस्कृति के साथ होता है तब उसे जानने-समझने के पैमाने अपनी संस्कृति से ही उठाने पड्ते हैं। अपनी संस्कृति बरबस उसके सामने एक जीवित अवयव की भाँति आ खड़ी होती है। जापान में पाँच वर्षों तक रहने का अनुभव जब संकलित करने का प्रयास करता हूँ तब बहुत सी चीजें छूट जाती हैं जिन्हें फिर कभी समेटने की लालसा बची रहती है। भारत और जापान के संबंध बाकी दुनिया की तरह नहीं पहचाने जा सकते। यह एक अनूठा और विस्मयकारी संबंध है जिसकी शुरुआत दर्शन के परकोटे से होती हुई, इतिहास, संस्कृति, मिथक, भाषा-साहित्य, राजनीति और आर्थिकी के दायरों को समाहित करती चलती है। समय-समय पर इनमें से कोई क्षेत्र विशेष अधिक उभर आता है तो कोई नदी के प्रवाह की तरह सतह के नीचे पूरी ऊर्जा से चलायमान रहता है। जापान में रहते और जीते हुए भारत के प्रतिबिंब और प्रतिध्वनियाँ सहसा सामने आ खड़ी होती थी और वे प्राय: अपने देश की ओर स्मृतियों का एक सैलाब मोड़ देती थी। तोक्यों के जिस हिस्से में मैं रहता था वहाँ एक खूबसूरत पार्क था-इनोकाशिरा। बहुत दिनों तक शाम के धुँधलके में उस उद्यान में यूँ ही टहलने चले जाया करता था। वहाँ एक भव्य काष्ठ-मंदिर है जो एक झील नुमा जलस्रोत के बीचोंबीच अवस्थित है। वहाँ आते-जाते लोगों को देखना, प्रार्थना में करबद्ध हाथों को निहारना तनावरहित होने का एक सुगम उपक्रम हुआ करता था। एक दिन दक्षिण एशियाई विभाग के निदेशक माननीय ताकेशि फुजिइ जी ने बताया कि वह मंदिर देवी ‘बेंजाइतेन’ का है जो भारतीय देवी सरस्वती का ही प्रतिरूप हैं। इस जानकारी से मेरा मन उत्कंठा से भर गया। अब वह मंदिर मेरे लिए एक स्थानीय तीर्थ-सा हो चला था जिसमें एक अतिरिकत श्रद्धा का समावेश हो गया था। जब भी कोई भारतीय मित्र मुझे मिलने आता मेरी बलवती अभिलाषा होती कि उस मंदिर के दर्शन उसे जरूर करा दूँ। बाद में तो जगह-जगह बौद्ध प्रतिमाओ, मंदिरों और स्मृति-स्थलों पर भारतीय जीवनधारा की पदचाप सुनाई देने लगी। नारा मे बोधिसेना की लहराती धर्म-पताका, गौरवशाली अशोक स्तंभ, कामाकुरा की महाकाय बौद्ध प्रतिमा, नेताजी बोस का अस्थिकलश, तमा की विराट श्मशान-भूमि में समाधिस्थ रासबिहारी बोस, तोक्यो में भारतीय दूतावास के पास जापान के राष्ट्रीय स्मारक में विराजमान विधिवेत्ता राधाबिनोद पाल की श्रद्धामूर्ति, स्वामी रामतीर्थ, विवेकानंद, कविवर  रबीन्द्र की, बरकातुल्ला खाँ के अवदान, ‘दो आँखें बारह हाथ’ फिल्म में चित्रित केगोन का जल प्रपात, निक्को में गाँधी जी के चिरपरिचित तीन बंदरों की प्रतिकृतियाँ, नोकोगिरियामा के विराट शिलापट पर उतकीरित शांत बुद्ध; अनेक संस्मरण हैं जो भारत की भावधारा को जापान की भूमि पर प्रवहमान बनाते हैं। कहें तो कह सकते हैं कि भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के परागकणों की गंध वहाँ के वायुमंडल में सहज महसूस की जा सकती है। यही कारण है कि भारत को देखने का जापानी कोण पश्चिमी दुनिया से अलग अधिक आत्मीयता और कृतज्ञता से भरा हुआ है। 

dsc_0470                                                    [नारा का प्रसिद्ध बौद्ध मंदिर: जापान में बौद्ध धर्म का प्रस्थान स्थल]

पराया देश समय की महत्ता बताता है। मन उद्वेलित रहता था कि अनेक जगहों को देख लूँ, भोजन का स्वाद चख लूँ, पहाड़ों की प्रदक्षिणा कर लूँ, सागर की नीली गहराइयों में उतर जाऊँ, अविरल बहती सलिला से संवाद कर लूँ, देवालयों में बैठी आत्माओं की छाया में अपने पूर्वजों की अनुगूँज सुन लूँ और फिर वहाँ की राजनीति और अर्थतंत्र की हलचलों को पकड़ लूँ, सामाजिक वेदनाओं का संधान करूँ; साथ ही, छात्रों को भारत भूमि की विराट संस्कृति तथा हिंदी साहित्य के वैभव से परिचित करा दूँ। अनेक इच्छाएँ और लक्ष्य के अनंत छोर मेरे मन को घेरे रहते थे । यायावरी ही एकमात्र उपाय था जो इन हसरतों को अंजाम तक ले जा पाता। थोड़े दिन बीते तो शहर अपना लगने लगा और घुमक्कड़ी आासान हो चली। प्राय: हर सफ्ताहांत किसी अनजाने कोने की ओर निकल पड़ता, अकेले। झरती बारिश में और आकाश से उतरते सफेद बर्फ के फाहों में भ्रमण आह्लादकारी था। कई बार तो चेतावनी के बावजूद भी चक्रवातों और बवंडरों को किसी कोने से देख लेने का मनोवेग इतना तीव्रतर होता कि बीमार पड़ने तक की नौबत आ जाती। तोक्यो के इर्दगिर्द फैले क्षेत्र को कांतो कहा जाता है। एक दिवसीय भ्रमण के लिए सबसे बढ़िया और किफायती यातायात मेट्रों की ट्रेनें हैं जो बड़े ही कठोर अनुशासन से चलती हैं। एक मिनट की भी देरी नहीं होती। इस परिवहन व्यवास़्था पर कई किताबें और वृत्तचित्र सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। यह देशाटन के लिए एक बड़ा सुभीता है। जापानी जीवन-शैली को निकटता से परखने का अवसर इनके बिना संभव न हो पाता।

भारत-जापान संबंधों की शुरुआत मदुरै में जन्में बोधिसेना के जापान पहुँचने से हुई थी। वे एक भिक्षु थे जो चीन के वुताइ पर्वत की तीर्थ-यात्रा पर थे। वहाँ उनकी भेंट जापान के तत्कालीन सम्राट शोमू के राजदूत से हुई। अब तक जापान के लोगों की बौद्ध दर्शन संबंधी जानकारी चीनी और कोरियाई भिक्षुओं के आवागमन पर ही आधारित थी। एक भारतीय की चीन में उपस्थिति को जापानी राजदूत ने अवसर के तौर पर देखा और सम्राट की ओर से उन्हें जापान यात्रा का निमंत्रण दिया जिसे बोधिसेना ने सहर्ष स्वीकार किया। बोधिसेना, कंबोडिया और विएतनाम होते हुए सन् 736 ई० में आोसाका पहुँचे और फिर वहाँ से तत्कालीन राजधानी नारा की ओर रवाना हुए। बोधिसेना की प्रत्यक्ष उपस्थिति से बौद्ध धर्म का विधिवत शुभारंभ जापान में हुआ। नारा का तोदाई-जी मंदिर (ऊपर का चित्र), जो एक विश्व धरोहर है, आज भी इसका साक्षी है। तोदाई-जी मंदिर के प्रांगण में मुक्त विचरते मृगों का रेला एक अलग ही आनंद-विधान की रचना करते हैं। इसी मंदिर में बुद्ध की 500 टन वजनी और 15 मीटर ऊँची कांस्य-मूर्ति विराजमान है। यह विश्व की सबसे विशाल कांस्य-प्रतिमा भी है। इसी तरह की एक भव्य एवं विशाल बौद्ध आकृति कमाकुरा नामक शहर में है जो तोक्यो से काफी नजदीक है। यहाँ कई बार जाना हुआ। 

जापान की आबादी हमारे उत्तर-प्रदेश से आधी लगभग साढ़े बारह करोड़ की है और क्षेत्रफल भी राजस्थान और हरियाणा के बराबर है। अधिकांश हिस्सा पर्वत श्रेणियों से ढका है और जिन पर ज्वालामुखियों का विस्तार है। कम हिस्से हैं जहाँ बसावट है। लगभग आधी आबादी तीन बड़े शहरों तोक्यो, आोसाका और नागोया के इर्द-गिर्द रहती है।तीन बड़े धर्म-शिंतो, बौद्ध और ईसाई-प्रत्येक नागरिक के जीवन का अंग है। धार्मिक कट्टरता नगण्य है और आधुनिक युवा वर्ग में ईश्वर के प्रति आस्था का सर्वथा अभाव है। धर्म एक संस्कृति में तब्दील हो चुका है, जो तीर्थाटन और पर्यटन में विभेद नहीं करता। मदिरापान जीवनशैली का अविभाज्य घटक है। मांसाहार और शाकाहार का भेद जापानी नहीं जानता। हमें जब-जब परिवार के साथ यात्रा करनी होती तब अपनी पूरी और पीले आलुओं का लंच साथ ले जाना पड़ता। तरह-तरह की ग्रीन-टी (ओचा) हमारी चाय की तरह प्रसिद्ध और लोकप्रिय है। साइकिल और पैदल चलने के निर्धारित पथ हैं जिन पर कोई अवैध कब्जा नहीं है। कारों की भरमार के बावजूद लोग साइकिलों और मेट्रों से ही प्राय: यात्रा करते हैं। आर्थिक समानता कमोवेश बनी हुई है और शत-प्रतिशत साक्षरता ने जिस भावबोध को विकसित किया उसमें दिखावेबाजी, बातूनीपन और छद्म श्रेष्ठता का सहज तिरस्कार कर दिया जाता है। लक्ष्मीधर मालवीय-जो महामना के पोते थे-जापान के क्योतो शहर में रहते थे। विगत वर्ष ही उनका देहांत हुआ। वे कहा करते थे कि हम भारतीय भाषा से खेलते हैं, उससे वितंडा रचते हैं, जापानी स्वाभाव से मौनकामी है और भाषाई वितंडावादी को बड़ी गर्हित नजरों से देखता है, उससे किनारा कर लेता है। राजनीति का सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में बेहद कम हस्तक्षेप होता है। लोग प्रशासनिक तंत्र पर भरोसा करते हैं। सरकारें अपनी जवाबदेही सुनिश्चित करती हैं। धरने-प्रदर्शन कम होते हैं पर जब भी होते हैं तब भी आम जनता प्रभावित नहीं होती। झुंडवाद और भीड़तंत्र से लोकनीति का निर्माण और नियंत्रण नहीं होता। नागरिक एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील रहते हैं। खोयी हुई चीजें बिना किसी क्षति के सौ प्रतिशत मिल जाती हैं। निंदारस का नकार ही देखने को मिलता है। जापानी नागरिक एक बेहद अनुशासित जीवन शैली जीता है। काम पर एक मिनट की देरी अपराध जैसे महसूस की जाती है। प्रकृति के प्रति स्वाभाविक आदर देखने को मिलता है। सड़के, पार्क, नदियाँ साफ-सुथरे बने रहते हैं। तिनका भर भी गंदगी देखने को नहीं मिलती। सड़कों पर हार्न बिलकुल नहीं बजते। बिना पूर्व तय किए, दूसरे से मिलना नामुमकिन है। फोन नहीं किए जाते। ई-मेल या संदेशवाही मोबाइल ऐप्स का ही इस्तेमाल किया जाता है। फोन तभी जब जीवन-मृत्यु का प्रश्न हो। ऐसा नहीं तो आप बेहद अगंभीर माने जाते हैं। मुझे इस बात को आत्मसात करने में महीनों लगे।

बोधिसेना जब जापान पहुँचे तो धर्म-दर्शन के साथ संस्कृत भाषा भी ले गए थे। आज जापान में तीन लिपियाँ-कांजी, हिरागाना, कताकाना-लिखित भाषा के लिए प्रचलित हैं। कहा जाता है कि कताकना पर संस्कृत का स्पष्ट प्रभाव है। अनेक संस्कृत शब्द जापानी में देखने को मिल जाते हैं जिनमें मुझे ‘तोरी’ (तोरण-द्वार) बहुत प्रिय लगता है। हर जापानी मंदिर के बाहर प्राय: तोरी अवश्य होती है। इसी तरह भारतीय मिथकीय चरित्र भी देखने को मिलते हैं जिनमें सरस्वती, यम, गणेश की प्रतिकृतियाँ शामिल हैं। देश के दो विश्वविद्यालयों-ओसाका और तोक्यो विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय में हिंदी की शोध स्तर तक की पढ़ाई होती है। दोनों ही विश्वविद्यालयों में भारत-प्रेमी शिक्षक मंडल मौजूद है। इनमें प्रसिद्ध हैं-पद्म श्री तोमिओ मिज़ोकामि, अकिरा ताकाहाशी, ताकेशि फुजिइ, यशोफुमि मिजुनो आदि। इनके आतिरिक्त कई अन्य विश्वविद्यालयों में समान्य शिक्षण के तौर पर हिंदी का अध्यापन किया जाता है। हिदेआकि इशिदा हिंदी के साथ मराठी साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। तोषियो तनाका जी ने हिंदी की कुछेक महत्त्वपूर्ण रचनाओं का अनुवाद जापानी भाषा में किया है। बहुधा जापानी विद्वत समाज चुपचाप, बिना प्रचार-प्रसार के अपने अनुसंधान में लगा रहता है। वे अपने किए गए कार्यों की जानकारी, संकोचवश, सहजता से साझा नहीं करते। संकोच, जीवन के परिवेश में छाया की भाँति टहलता है। एक बार मेरी एक छात्रा ने बताया कि वह अपने माता-पिता से भोजन के समय थोड़ा शराब की खुमारी के बाद ही सहजता से बात कर पाती है। बातचीत भी एक साधना और सचेत व्यवहार जैसा बना हुआ है। प्रश्न और शिकायतें प्राय: जज्ब कर ली जाती हैं। अक्सर मैने देखा कि छात्र कक्षाओं में सवाल नहीं पूछते थे, बावजूद मेरे उकसाने के। इससे ऐसा लगता है कि एक घुटन भी पैदा हुई है जिससे हर रोज लगभग 30 लोग आत्महत्या जैसे कदम उठाने को विवश होते हैं, जो कम जनसंख्या के हिसाब से बहुत ज्यादा है। विवाह जैसी संस्थाओं का विघटन हो रहा है और हर साल लगभग तीन लाख के करीब आबादी में गिरावट आ जाती है।  

ऐसे ही घूमते-घामते जापान की सांस्कृतिक राजधानी क्योतो और व्यावसायिक राजधानी आोसाका का भी भ्रमण हुआ। हिरोशिमा के भग्न गुम्बद को देखकर दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका का सहज अनुमान कर पाया।क्योतो अपने प्राचीन रूप को अभी भी सहेजे हुए है। अनेक मंदिर, कलाएँ, पारंपरिक परिधान, नृत्य, नाट्य, संगीत, पाक विद्या, स़्थापत्य के नमूने पूरे शहर में बिखरे पड़े हैं। इसका बड़ा कारण यह भी है कि विश्वयुद्ध के समय इस शहर पर कोई बमबारी नहीं हुई। केन्काकू-जी  स्वर्ण-मंदिर अत्यंत आकर्षक है। प्रकृति के बदलते परिवेश में यह अपनी छटा बदलता रहता है। यहीं पर विश्व प्रसिद्ध मंदिर क्योमिजूदेरा भी है, जो एक खूबसूरत पहाड़ी पर अवस्थित है. इस मंदिर को देखकर अपने तिरुपति तिरुमला तीर्थ की स्मृति आना स्वाभाविक था। क्योतो के पास का शहर ओसाका है जो जापान का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। यहाँ से हिरोशिमा तक की यात्रा बुलेट ट्रेन-सिनकानसेन-से लगभग तीन घंटे में पूरी हो जाती है। हिरोशिमा, जैसा कि हम सब जानते हैं, दूसरे विश्वयुद्ध में अणु बम के प्रहार से पूरी तरह ध्वस्त हो गया था। लेकिन, अब वह पूरी तरह पुनर्जीवित हो चुका है। यादगार के लिए एक गुंम्बद को संरक्षित किया गया है और एक शांति-मेमोरियल तथा संग्रहालय की स्थापना की गई है। दुनिया से नाभिकीय अस्त्रों की समाप्ति के अभियान प्राय: यहीं से संचालित किए जाते हैं। लेकिन हिरोशिमा का भूदृश्यीय सौंदर्य सागर के बीच स्थित एक छोटे से द्वीप मियाजिमा में ही देखने को मिलता है। समुद्र के बीच स्थित एक भव्य श्राइन है जो पूर्णत: लकड़ी का बना है साथ ही एक विशाल तोरण द्वार खड़ा है-देव आत्माओं का आह्वान करते हुए।

dsc_0103  [क्योतो का किंकाजू मंदिर]

थोड़ा इतिहास और राजनीति की ओर देखें तो हम भारतीयों को नेताजी सुभाष बोस की याद जापान के संदर्भ में सबसे पहले आती है। तोक्यो के कोएन्जी शहर में स्थित रेन्को-जी श्राइन में उनका अस्थि-कलश संरक्षित है। लेकिन जिस एक व्यक्ति के बारे में मैं बिल्कुल नहीं जानता था वे विधिवेत्ता राधाबिनोद पाल हैं। वहाँ के राष्ट्रीय स्मारक-यासुकुनी श्राइन- में इनको गहरी श्रद्धा और आदरपूर्वक प्रतिष्ठित किया गया है। आमेरिका, चीन और दक्षिण कोरिया के विरोध के चलते जापान का कोई प्रधानमंत्री यहाँ नहीं जाता था। ये तीनों देश इस स्थल को दूसरे विश्वयुद्ध को न्यायोचित ठहराने और महिमांडित करने की जापानी कोशिशों के तौर पर देखते हैं। हालाँकि विगत प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने पहली बार यहाँ जाकर साहस दिखाया। राधाबिनोद पाल के योगदान को आज एक वेब सीरीज ‘तोक्यो ट्रायल्स’ में प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। वे अकेले ऐसे जज थे जिनके विरोध के चलते अनेक जापानी सैनिकों को द्वितीय विश्वयुद्ध के दोष से मुक्त कर दिया गया और वे फाँसी की सजा से बच सके थे। इसी तरह का व्यक्तित्व रासबिहारी बोस का था जो आजाद हिंद सैनिक के तौर पर जापान गए थे वहाँ उनकी स्मृति गहरे तक पैठी। उनकी समाधि मेरे विश्वविद्यालय के बहुत ही करीब तमा सिमेट्री में है। लेकिन, मैं पहली बार वहाँ आोसाका से आए अपने मित्र प्रो० चैतन्य प्रकाश योगी के साथ गया जहाँ उस विशाल श्मशान भूमि की नीरवता में हम घंटों पैदल विचरते और बतियाते रहे। परंपराओं का प्रवाह कभी दृश्यमान तो कभी अनदेखा भी रहता है। मेरे मेधावी छात्र यूता सतो, जो अवधी भाषा सीखने के मेरे पास आ जाया करते थे, से प्रसंगवश मैं अपने गृह जनपद अयोध्या में प्रचलित ‘दरिद्दर भगाने’ की परंपरा का उल्लेख कर रहा था। तब उन्होंने इसी तरह के एक अनुष्ठान-सेत्सुबून-के बारे में बताया। पितृपक्ष जैसे अनुष्ठान भी जापान जनजीवन में श्रद्धापूर्वक मनाए जाते हैं। 

dsc_0435[ओसाका शहर: रात का नजारा]

ऐसा नहीं है कि जापानी लोगों की भारत के प्रति उत्सुकता केवल बौद्ध दर्शन को लेकर ही रही हो। फूकुओका के निवासी तत्सुमारू सुगियामा ने अपनी करोड़ों की जापानी संपत्ति बेचकर पंजाब में वृक्षारोपण का व्यापक अभियान चलाया जिससे राजस्थान का पसरता मरुस्थल थम गया। वे गाँधी जी के जीवन-दर्शन से बेहद प्रभावित थे और एशियाई श्रेष्ठता के पैरोकार भी। भारत के प्रति उनकी गहरी श्रद्धा थी। इसी तरह सुदूर प्रांत-नीगता- के तोकियो हाशेगावा ने मिथिला भिति-चित्रों का विशाल संग्रहालय स्थापित किया हुआ है जो आज भी प्राणवान बना हुआ है। वे बहुधा भारत आते हैं और उत्तर-पूर्वी राज्यों खासतौर पर मणिपुर में अपना समय व्यतीत करते हैं।

अभी हाल ही में भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के नए समूह-क्वाड-को पुनर्जीवित किया गया है। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का जापान में विशेष आदर है। क्वाड के इस प्रयत्न से दोनों देशों के और करीब आने की संभावना है जिनमें चीन से आ रही चुनौतियों का दोनों मुल्कों को सामना भी करना है। प्राय: चीनी युद्धपोत जापान की समुद्री सीमाओं में घुसकर अपनी धौंसपट्टी जमाते रहते हैं जैसाकि वे हमारे लद्दाख, सिक्किम या अरुणाचल में करते हैं। अनेक जापानी कंपनियाँ भारत को नए निवेश स्थल के तौर पर देख रही हैं। ऐसा हो तो हमारे आर्थिक संबंधों में अधिक प्रगाढ़ता आएगी और दोनों राष्ट्र समृद्धि की नई राहों पर चल पड़ेंगे।

       जापान एकांत और नीरवता की पोषक भूमि है। जहाँ दूसरे लोग बेवजह आपके जीवन में प्रवेश करने से बचते हैं। बारिश प्राय: हो जाया करती है जो हम जैसे दिल्लीवासियों के लिए रोमांच लाती है लेकिन जापानी इसे मुसीबत मानते हैं। जापान के उस सन्नाटे मेरा प्रवास एक आत्मान्वेषण का उपक्रम ही तो था जिसने बहुत कुछ बदला है। पराई संस्कृतियाँ परिवर्तन की दस्तक देती है और परिवर्तन का घटित होते रहना ही जीवन का सर्वोच्च आनंद है।

भारत-जापान संबंध की विस्मृत कड़ी: जस्टिस राधाबिनोद पाल

aa123आजकल अधिकांश अंतरराष्ट्रीय द्विपक्षीय संबंध आर्थिकी पर टिके होते हैं अौर प्राय: शासनाध्यक्षों की मुलाकातें अौर समझौते भी इसी के ईर्द-गिर्द घूमते हैं । लेकिन जापान के साथ भारत के द्विपक्षीय संबंधों में आर्थिकी के अतिरिक्त सांस्कृतिक, राजनीतिक, भू-सुरक्षा आदि कई अन्य आयाम कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं । जापान के साथ भारत G-4 समूह का हिस्सा है। ये देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक-दूसरे को स्थायी सदस्यता दिए के जाने का समर्थन करते हैं । इसके अतिरिक्त हिंद-प्रशांत क्षेत्र में मुक्त आवाजाही के लिए भी दोनों देशों में आम सहमति है । इसका लक्ष्य चीन की विस्तारवादी नीति पर अंकुश लगाना है । चीन, भारत के कई क्षेत्रों मसलन लद्दाख, अरुणाचल अौर सिक्किम आदि में समय-समय पर समस्याएँ पैदा करता है । जापान के सेंकाकू द्वीप को लेकर भी चीनी रवैया प्राय: ऐसा ही देखने को मिलता है । शिंजो आबे ने ही अपनी पहले की एक यात्रा में ‘सेक्युरिटी डायमंड’ की प्रस्तावना की थी । जो विश्व सुरक्षा का नया खाका खींचता है । अक्सर भारत-जापान के सांस्कृतिक आयाम को बौद्ध धर्म-दर्शन के आलोक में देखा जाता है, लेकिन आधुनिक काल में इसमें भावनात्मक आयाम जोड़ने वाले न्यायमूर्ति राधाबिनोद पाल (27 जनवरी 1886-10 जनवरी 1967) थे । उनका जन्म कुश्तिया जिले (अाज के बंग्लादेश) के सलीमपुर गाँव में हुआ था । 

जापान की राजधानी तोक्यो में एक शिंतो श्राइन है जिसका निर्माण 1869 में तत्कालीन सम्राट द्वारा करवाया गया था । जापानी लोगों में यह एक आधुनिक तीर्थ के रूप में समादृत है । राधाबिनोद पाल का स्मारक भी इसमें मौजूद है । यह जगह भारतीय दूतावास के पास ही स्थित है । जब मैं जिज्ञासावश इस श्राइन में अंदर गया तो राधाबिनोद पाल का स्मारक देख आश्चर्य से भर उठा । क्योंकि जापान में रहते हुए भी इनकी अधिक चर्चा नहीं सुनी थी । बाद में इनके बारे में अधिक जानकारी एकत्र करता रहा । इसके साथ ही क्योतो नामक अन्य शहर में भी उनका स्मारक रयोजन गोकुको मंदिर में भी बना हुआ है ।

दूसरे विश्वयुद्ध के उपरांत संयुक्त राष्ट्र ने एक अंतरराष्ट्रीय न्याय आयोग  का गठन किया जिसमें जिसमें राधाबिनोद पाल भी एक सदस्य के रूप में सम्मिलित किए गए थे । 1946 में जब ‘तोक्यो ट्रायल’ शुरू हुए तब जस्टिस पाल को अन्य ग्यारह देशों के जजों के साथ युद्ध पूर्व साजिश रचने के दोषियों पर एक महत्वपूर्ण निर्णय देना था । राधाबिनोद पाल ने बहुमत के विरुद्ध अपनी राय सुनाई जिसे बहुत सराहा गया । जस्टिस पाल इस न्यायिक-मंडल में बिल्कुल अंत में शामिल किए गए थे । जब युद्ध-दोषियों की सजा तय करने के लिए ‘तोक्यो ट्रायल’ में सम्मिलित होने के लिए कई भारतीय जज मना कर चुके थे तब राधाबिनोद पाल ने इसकी हामी भरी थी । जब वे इसके लिए तोक्यो पहुँचे तब इस न्यायिक अधिकरण की कुछेक प्रारंभिक बैठकें हो चुकी थीं । उन्हें यह भाँपने में देर न लगी कि यह तथाकथित न्यायिक अधिकरण न्याय का दिखावा करने के लिए गठित हुआ है । युद्ध-दोषियों को सजा देने की पटकथा पहले ही तैयार हो चुकी है । सुनवाइयाँ, नाटक मात्र हैं । लेकिन वे इस सब को सब्र के साथ देखते रहे । बाद में जब कुछ ट्रायल हो चुके तो उन्होंने अपना विरोधी इजहार करना शुरू कर दिया । इससे इस न्याय मंडल की सर्वसम्मति से निर्णय लिए जाने वाले ‘नाटक’ का पटाक्षेप हो गया अौर न्यायिक प्रक्रिया ने रफ्तार पकड़ ली । धीरे-धीरे नीदरलैंड अौर फ्रांस के जजों ने भी जस्टिस पाल के साथ अपना विरोधी मत प्रकट किया । इसके चलते अनेक निर्दोष जापानियों की जान बच सकी थी । उनके निर्णय से यह भी साफ हुआ कि युद्ध को भड़काने के लिए केवल जापान दोषी नहीं है, जैसाकि उस पर आरोप लगाया गया था ।      

भारत-जापान संबंधों को मजबूत बनाने में हिंदी भाषियों की अपेक्षा बंगालियों की भूमिका कहीं अधिक थी । नेता जी सुभाष बोस की अाजाद हिंद फौज अौर जापान के सहसंबंध को बताने वाली भी अनेक कहानियाँ अौर फिल्में हैं । रास बिहारी बोस नामक एक अन्य बंगाली थे जिन्होंने दोनों देशों के बीच एक सेतु का कार्य किया । रवीन्द्रनाथ ठाकुर अौर स्वामी विवेकानंद भी जापान के अकादमिक जगत में प्रसिद्ध हैं । राधाबिनोद पाल को लोग भारत में भी नहीं जानते जबकि वे कोलकाता के हाईकोर्ट के जज रहे अौर बाद में कोलकाता विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने । उनका परिवार वैष्णव धर्म के मूल्यों का आदर करता था । महात्मा गाँधी के अहिंसात्मक अांदोलन का उनके जीवन पर गहरा असर था । ‘तोक्यो ट्रायल’ के न्याय-पत्र में उनकी यह मूल्यवत्ता देखने को मिलती है । अनेक बिंदुअों पर सामान्य नागरिकों अौर युद्धबंदियों पर अत्याचार के लिए उन्होंने तत्कालीन जापानी सत्ता की भी आलोचना की । विश्व के न्यायिक इतिहास में ‘तोक्यो ट्रायल’ के दौरान उनका लिखा जजमेंट एक आदर्श अौर निष्पक्ष दस्तावेज के रूप में आज भी प्रेरणादायी है । उन दिनों जापान में रहते हुए जस्टिस पाल ने अपना पूरा ध्यान अंतरराष्ट्रीय कानून के अध्ययन अौर अपना निर्णय लिखने पर ही लगाया था । 

अंतरराष्ट्रीय न्यायिक अायोग जो कि मात्र दिखावे के लिए पूर्व निर्धारित निर्णय को ही सुनाने के लिए गठित हुआ था, राधाबिनोद पाल की उपस्थिति से संजीदा बन गया । वे न्यायिक बेंच में सबसे कोने पर बैठते थे । कहा जाता है कि सभी अपराधी इस न्यायिक प्रक्रिया के परिणामों से पहले ही परिचित थे । इसलिए वे इस पूरे ‘तमाशे’ के प्रति उदासीन थे । कोई-कोई पूरी सुनवाई के दौरान झपकियाँ लेता था तो कोई अपने दोस्त की गंजी टांड पर थपकियाँ देता था । पूरी ज्यूरी के पास भी कोई विशेष काम नहीं था । वह अपराधियों अौर उनके बयानात की सिर्फ श्रोता मात्र बनी हुई थी । उसे तो पहले से ही तय किए गए निर्णय को सुनाना था । ऐसे अगंभीर माहौल में जो व्यक्ति सबसे अधिक बेचैन अौर गंभीर था, वह मात्र राधाबिनोद पाल ही थे । वे इसे अपने लिए एक ऐतिहासिक अवसर के तौर पर देख रहे थे अौर मानव सभ्यता के न्यायिक इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ने को तत्पर थे । इसके चलते वे सुनवाइयों के बाद अपने अापको कमरे में बंद कर गहन चिंतन करते । उन्होंने कई बार अपने साथी जजों न्यायिक मापदंडों अौर मर्यादाअों के बाबत पत्र भी लिखे जिससे ब्रितानी जज बड़े शशोपंज में पड़ गए । उन्होंने ब्रिटेन की सरकार पत्र लिखकर जस्टिस पाल को ज्यूरी से बाहर करने की भी कोशिश की । लेकिन तब भारत की आजादी का समय बिल्कुल करीब आ गया था ।  ब्रितानी सरकार ने जस्टिस पाल को ज्यूरी बने रहने दिया, यह बहुत हद तक उनकी मजबूरी भी बन गई थी ।  अपने जजमेंट को एक मार्गदर्शक पत्र के रूप में प्रस्तुत करने के चलते ‘तोक्यो ट्रायल’ के बाद जब वे जापान वापस गए तो उन्हें एक हीरो की तरह देखा गया । उन्हें जापान का आर्डर अॉफ द सेक्रेड ट्रेजर (फर्स्ट क्लास, 1966) पुरस्कार दिया गया । भारत ने भी 1959 में उन्हें पद्म विभूषण से अलंकृत किया ।   

जापान जर्नल: जज़ीरे के जजमान

जापान के प्रवासी प्रोफेसर राम द्विवेदी के मनोरंजक एवं सूचनाप्रद संस्मरण। इसमें जापान की प्रकृति, संस्कृति अौर समाज की कहानियाँ हैं। व्यंग्य अौर गांभीर्य का अद्भुत संयोजन है। यह जापान की जीवन-शैली को भारतीय निगाह से देखने का उपक्रम भी है। इस किताब को पढ़कर जापान के सांस्कृतिक परिवेश का साक्षात अवलोकन किया जा सकता है। उस समाज का अकेलापन, भाषागत समस्याएँ, कठिन अौर अनुशासित जीवन की अनेक छवियाँ इसमें उभरती हैं। अनेक पहाड़ों, द्वीपों, मंदिरों अौर समुद्री तटों का वर्णन भी लेखक ने किया है। इस तरह यह यात्रा-वृतांत का आह्लाद भी पैदा करता है। अनेक जापानी अौर भारतीय लोगों पर भी जीवंत टिप्पपणियाँ है। इस पुस्तक से गुजरना इसलिए भी जरूरी है कि इसमें तरल मनोविज्ञान की सघन बुनावट है जो समाजशास्त्रीय बोध से लबरेज है।

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एक जीवंत अध्यापक

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बात 1990 की है। तब हिंदू कॉलेज में हिंदी पढ़ने बेमन से गया था। स्वर्गीय गुरुवर पालीवाल जी ने एक संक्षिप्त साक्षात्कार के बाद प्रवेश दे दिया था। कक्षाएँ आरंभ हुई तो एक-एक कर सभी अध्यापकों से मिलना होता था। उन दिनों दुविधा में था कि हिंदी पढूँ या फिर बी०ए० प्रोग्राम में चला जाऊँ। दिल्ली में हिंदी पढ़ने से कोई खास प्रतिष्ठा नहीं बढ़ती थी। इन्हीं उधेड़बुन के दिनों में गुरुवर हरीश नवल जी कक्षा में आए थे। हिंदी साहित्य पर तो वे बहुत कम बोले पर पूरी दुनिया में हिंदी की स्थिति, अध्यापन के अवसर, हिंदी की पहुँच, प्रभाव अौर क्षमता से अवगत कराया। पहली बार उन्होंने ही यह बताया था हिंदी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। विज्ञान का छात्र होने के नाते हिंदी के बारे में बहुत कम जानता था अौर सीनियर सेकेंडरी में दो वर्षों तक पढ़ने का माध्यम भी अग्रेजी ही था। खैर उनकी बात ने मेरी दुविधा खत्म कर दी अौर हिंदी ही पढ़ने का संकल्प हो गया था। बाद के वर्षों में कभी भी इसका पछतावा नहीं रहा। न ही आज है। हर अध्यापक का अपना तल है, अपनी शैली होती है। कुछ अधिक आकर्षक अौर दीप्तिमान होते हैं अौर कुछेक में जीवन का अनुभव अधिक सक्रिय होता है। हरीश जी अौर ऋतुपर्ण जी की कक्षाअों में व्यावहारिक जीवन के अनेक उदाहरण होते थे। घर में चुप्पा रहने वाला व्यक्ति नवल जी की व्यंग्य क्षमता से अवलोकित हो मुखर हो उठा था। इस व्यंग्य का असर इतना गहरा है कि घर में पत्नी भी यह वार झेल नहीं पाती। कॉलेज के सहयोगी अौर मित्र भी मेरे व्यंग्यीय आचरण से खिन्न हो जाते हैं अौर कभी-कभार तो दुश्मनी भी ठान लेते हैं। इसका बीज गुरुवर हरीश नवल जी के सानिध्य में पला-बढ़ा था। यह असर इतना गहरा है कि कई बार व्यंग्य करने के बाद पछतावा भी होता है। जब मैंने कहानियाँ लिखनी शुरू की तो उनमें भी यह प्रभाव पूरी ताकत से उभरता रहा है।

अपने पी०एचडी० के दिनों में ही नवल सर के साथ पढ़ाने का अवसर भी मिला। यह बिना उनके स्नेह अौर आशीर्वाद के संभव न था। नवल जी अौर दीपक जी चाहते थे कि मैं हिंदू कॉलेज आ जाऊँ अौर अपने ही कॉलेज में पढ़ाने का चार्म मैं भला कैसे छोड़ देता। उनका सहयोगी होने पर उन्होंने अधिक प्रोत्साहन दिया अौर अनेक मंचो पर बोलने-लिखने-पढ़ने का अवसर दिया।अनेक अवसर एेसे भी आते थे कि मैं उनकी बातों से भिन्न राय रखता था पर उसका उन्होंने कभी बुरा नहीं माना, बल्कि उस पर अधिक संवाद करने की इच्छा ही रखते थे। लंबे समय में मुझे याद नहीं कि उनको कभी क्रोध आया हो। हाँ अपनी असहमति वे जरूर दृढ़ता से प्रकट करते थे पर किसी के प्रति ‘रिवेंज’ का भाव न होता था। हिंदू कॉलेज के अध्यापकी के दिनों में ही वे कॉलेज के आवास में रहने आ गए थे। तब अक्सर शाम को चाय पीने किसी न किसी मित्र के साथ उनके घर पहुँच जाता था। सुधा मै’म चाय के साथ अन्य चीजें देना कभी न भूलती थीं। अकेला शायद ही कभी गया हूँ, दूसरे कॉलेज के मित्र वगैरह साथ होते ही थे। बिना सूचना के पहुँचना ही उन दिनों की प्रथा थी। कभी लगा नहीं कि मै’म ने बुरा माना हो। बल्कि एक उत्साह ही उनमें होता था। हँसमुख आस्था अक्सर दरवाजे पर स्वागत करती अौर प्रतीक्षा के लिए बिठाती थी।बाद में वह मेरी छात्रा बनीं। सर के घर पर गजेंद्र सोलंकी, लालित्य ललित समेत अनेक लेखक-प्रकाशक उपस्थित ही रहते थे। चाय-चर्चा साहित्य चर्चा में बदलती थी। उन्हीं दिनों मेरा समाजवादी रूझान बढ़ रहा था। नवल सर किसी विचारधारा विशेष से जुड़े नहीं थे, न अब हैं। उन्होंने मेरे समाजवादी रुझानों को प्रोत्साहित ही किया अौर बहुधा अपने अनुभव से उसे संतुलित करते रहे। वैचारिक अग्रहों को दुराग्रह में न बदल जाने में उनकी बड़ी भूमिका है। आज मेरे प्रकाशित कहानी संग्रह-तक्षशिला के तक्षक- की संकल्पना अौर शीर्षक सर के घर बैठकी की ही उपज हैं। अौर, उसमें अनुस्यूत व्यंग्य तो उनके सघन सहचर्य के बिना संभव नहीं हो सकता था।

इन दिनों तोक्यो अाने पर पता चला कि सर को कर्क ने ग्रसित कर लिया है। एएडी के अग्रज आदरणीय कृष्णलाल जी ने जब यह सूचना दी तो मैं अवाक रह गया था। सर को फोन किया पर वे शायद इलाज के लिए गए थे। मित्रवर हरींद्र से बात हुई अौर थोड़ा तसल्ली मिली। कुछेक कारणों से फेसबुक पर सक्रिय नहीं रह पाता। पर सर की सक्रियता देखकर सुखद आश्चर्य होता है। उनका सौम्य, शांत, समृद्ध अौर अाकर्षक व्यक्तित्व मुझे आज भी प्रेरित करता है। हाँ चिंता यही रहती है कि जो व्यंग्यकार उन्होंने मेरे भीतर गढ़ा है, वह ‘लंठ’ में न तब्दील हो जाए। कभी-कभी एेसा हो जाता है। गुरुवर समस्त विपत्तियों को पीछे ठेल सदा-सर्वदा सक्रिय रहें, यही प्रकृति अौर प्रभु से प्रार्थना है।

हिरोशिमा का पर्यटक

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अब

हिरोशिमा में सब सामान्य है

चलती हुई ट्राम

बहती हुई नदी

अौर पड़ोस में लहराता सागर

लोगों की आवाजाही

सड़कों पर चलता कामकाज

बसों का टिकट बाँटती

सुंदर लड़की, मुस्कराती

ज्ञापित करती धन्यवाद

बार-बार

वे दुकानों की कतारें

रेलों का आवागमन

बागीचे में सफाई करता कर्मचारी

अौर

टहलती बूढ़ी मायी

बाहर की गगन छूती इमारतें भी

सामान्य हैं

आते-जाते तस्वीर उतारते पर्यटक भी तो।

पर पर्यटक

सब एक तो नहीं

कुछ खाली कुछ भरे हुए

कुछ जिंदा कुछ मरे हुए

कुछ संकोची कुछ डरे हुए

कुछ इतिहासविज्ञ कुछ नॉर्मल

थोड़े अौसत थोड़े एबनॉर्मल

शोधार्थी भी विद्यार्थी भी

कुछ चाटते आइसक्रीम

कुछ देखते मोबाइल स्क्रीन

थोड़े सेल्फी वाले भी

दिलजले दिलवाले भी

लंबे नाटे गोरे काले भी

अकेले परिवार वाले भी

पर

वह कौन पर्यटक है हिरोशिमा का

एकांत खड़ा

प्रतीक्षारत किसी गाइड का

विचित्र

गाइड

जिसकी हड्डियाँ अभी भी हैं

बलिष्ठ

दशकों की उम्र पार कर भी

अनुभव का अथाह जल समेटे

चला आया है जो अविरल अथक

चेहरे पर झुर्रियाँ

पर चमक अौर स्वाभिमान का दर्प

बिल्कुल धँधला नहीं

हिरोशिमा की चहल-पहल में

इस गाइड को

जानने वाले ज्यादा नहीं हैं

‘मलाल है, इसका’

उस एकाकी पर्यटक ने पूछा

‘न! बिल्कुल नहीं’ जवाब था

मुझे न जाने तभी अच्छा है

क्योंकि

बताने के लिए सिर्फ वेदना ही तो है मेरे पास

इस हिरोशिमा की

जबकि, देखो

अब

सब बदल गया है

अौर यह बदलाव प्रीतिकर है

बरकरार रहे, बस।

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वह बूढ़ा गाइड

चेहरे की झुर्रियों में लिपटा

जैसे सशंकित हो उठा हो

हिरोशिमा की पुनरावृत्ति को लेकर

कहीं भी कभी भी

पर्यटक ने उस उदास चेहरे को देखा

बुद्ध का प्रतिरूप हो

ज्यों

पर्यटक बोला ‘कुछ बताइए

इस स्मारक के बारे में’

‘वह सुबह थी

झिलमिलाते सूरज की सुबह

बच्चे स्कूल जा रहे थे

किताबे लिए हाथ

भविष्य थे वे, बेहतर भविष्य हो इस धरती का

इस सपने के साथ

छोटे कदमों अौर खिलखिलाती हँसी की उमंग थी उनमें

माँए थी

जो उनकी उँगली थामे

आश्वस्त करती थीं उन्हें, भयमुक्त

घरों में वृद्ध

अपने बागीचों को सवारने में थे तल्लीन

सँवार रहे थे दुनिया का एक कोना

सड़को पर युवा

अपने जीवन अौर देश की चिंता में थे व्याकुल

सहसा

आसमान में एक गिद्ध मडराया

डैने पसारे हुए

अौर

सूरज डूब गया धरती पर

धरती का परिदृश्य

मिथक कथाअों के डेमन का संसार बन गया

अाग, धुँए के पहाड़

उठ खड़े हुए

निगल लिया

धरती की वनस्पति

हरी दूब

कली जो खिलने को ही थी

फूल भी

परिंदे, जो डालियों पर बैठे थे खामोश

अौर वे भी जो उड़ान भर रहे थे

चहकते हुए

निगल लिया

उस सायकिल पर चलते सवार को

पीछे बैठी बिटिया को

उसके हाथ में खेलती गुड़िया को

हवा में उड़ते संगीत को

अल्हड़ युवती के राग को

युवा जोड़े के अनुराग को

उनकी हस्त-गुंफित बाँहों

विरही की आहों को

निगल गया

सभ्यता के स्थापत्य को

कृत्य को अकृत्य को

नदी में चलते जल को

सब चल-अचल को

डेमन का दावानल

मांसल त्वचाएँ

बलिष्ठ भुजाएँ

मानव का दर्प

रेंगता सर्प

सपने देखती आँखें

वृक्षों की साखें

नाव में बैठा सन्यासी

आश्रम का उदासी

जंगल का वनवासी

तितली के पंख

सागर के शंख

गौरैया की चोंच

चिंतन सोच

आभूषण परिधान

समस्याएँ समाधान

चंचल चींटी

जलती अँगीठी

मसीहा की मज़लिस भी

भस्मीभूत, सारे देवदूत

इतना कह

मौन हो गया

वह

सत्तर वर्षीय वृद्ध

अनुभव सिद्ध जर्जर जड़ीभूत अटल इतिहास साक्षी

शांति अकांक्षी

अौर

पर्यटक अपलक रहा देखता उसे

महसूस करता कुछ

अजाना, अविश्वसनीय

तदाकार होता हुआ

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शाम

दूर मियाजिमा के उथले तट पर

मद्धिम लहरों की चपलता निहारते

गेरूए तोरण के बीच

ढलते सूरज की आहट को सुनते हुए

पर्यटक ने

टीप लिखी-

‘हिरोशिमा की वह सुबह फिर कभी न हो, न हो कभी मानव इतिहास में’

एक पुरानी कविता

 

 

८-१०-१९९८

इन शहरों में आकर हम ,दिल से कितने रीते हैं।

याद आ रहे वो दिन हमको जो गाँवों में बीते हैं।।१।।

कुदक फुदकती उड़न चिरैया,गदराए आमों की डाली

शाखा पर बैठे तोता मैना अौ अमराई की हरियाली

यहाँ बाहर से सब मधुर-मधुर है,भीतर से सब तीते हैं।याद।२।

घलर मलर खूब दूध दोहती,वो प्यारी बूढ़ी मैया

भरते कुलाचे छकड़े-छौने,वो अपनी उजली गैया

ताल तलैयों की वह छकपक अब सपनों से हो बीते हैं।याद।३।

सिर पर धानों को ढोती वह अपनी चंपा काकी

धूल उड़ाती बैलगाड़ियाँ, अल्हड़ मेलों की झाँकी

छूट गया वह सादा जीवन, टूटे मन अब सीते हैं।याद।४।

फागुन के रंग गुलाबी,देवर भाभी की गाली

गालों में रंग लगाती वह अपनी छोटी शाली

वे सच्चे संबंध भूलकर,नकली रिश्तों में जीते हैं।याद।५।

खींचमखाँच झुरमुटों की वह छेड़छाड़ अंधियारे की

चंदा की वह मंद रोशनी हँसी ठिठोली गलियारे की

मस्ती भरा वह मधुर ज़ाम था,नकली सुरा यहाँ पीते हैं।याद।६।

 

दार्जिलिंग और सिक्किम की यात्रा

जून का महीना आतेआते दिल्ली की सड़कें,बस्तियाँ और चौराहे गर्मी से उबलने लगते हैं। इस बार मन था का भारत के दूरस् हिस्से की ओर प्रस्थान किया जाय। अक्सर अपनी यात्रा की रूपरेखा मैं मानचित्र को देखकर बनाता हूँ। इसमें मेरी सहायता राहुल सांकृत्यायन,कृष्णनाथ और प्रयाग शुक्ल का साहित् करता है। जबजब भारत का नक्शा हाथ में आता सिक्किम अलग से टंगा हुआ प्रदेशरोमांच और कौतूहल पैदा करता। भोटिया जीवन के बारे में बड़े विस्तार से राहुल जी ने लिखा है। नाथू ला और पुराने सिल् मार्ग के बारे में एक तीव्र जिज्ञासा ने बहुत दिन से घेर रखा था। तिस्ता का आकर्षण भी अनेक तरह से घेरे हुए था। तो निश्चय हुआ कि इस बार सिक्किम देखा जाय। परिवार के अन् सदस्यों से बात हुई, एक लोकतांत्रिक तरीके से जिसमें छोटेबड़े सबने अपनी राय रखी। तय हुआ कि पहले दार्जिलिंग और फिर सिक्किम चला जाय। एक मित्र ने सलाह दी तो कालिमपाँग भी जोड़ दिया गया। हवाई यात्रा का भी लुत्फ उठाना था और एक निश्चित समय भी तय करना था। मुझे पहाड़ों की बारिश उसी तरह लुभाती है जैसे पहलापहला प्यार। सो, इसमें मैंने समय तय करने में अपनी चलायी और 15 जून कोकिंगफिशरसे दिल्ली से बागडोगरा की ओर उड़ जाने का निश्चय कर दिया गया।

जून की शुरुआत ही थी।दार्जिलिंग समेत पश्चिम बंगाल में भयंकर तूफानआइलाने दहशत फैला दी थी। हमारी यात्रा भी आशंकाओं से घिर गयी थी।पर, 15 जून तक सब ठीक हो चला था। दोपहर 1 बजे हमारा विमान बागडोगरा विमानपत्तन पर उतर चुका था। दिल्ली जैसी ही डरावनी गर्मी। मेरा ग्रामीण सामंती बोध भी जागृत हुआ और टाटा सूमो से ही दार्जिलिंग की ओर रुख किया गया। थोड़ी दूर,तकरीबन आधा घंटे चले होंगे कि पहाड़ी राह चुकी थी। हम आगे बढ़ते रहे,मार्ग दुर्गम होता चला गया, गर्मी छूटती चली गयी। फिर एक जगह ढेर से बादलों ने घेर लिया जैसे कि दिल्ली में दिसंबरजनवरी की धुंध भरे माहौल में होता है। हम सब पुलकित हो उठे थे। छोटी बेटी वर्तिका अब चहचहाने लगी थी।उसके अनेक प्रश् और जिज्ञासाएँ। उसकी बातें मुझे कवितासी मालूम पड़ने लगी। प्रकृति मनुष् को सहज ही कवि बना देती है।

हमारा हला पड़ावमिरिक लेकथा।यह झील बादलों के बीच कभी गुम हो जाती तो कभी इसका लहराता पानी खिलखिलाने लगता। पास ही एक स्कूल से बच्चों का एक झुंड टहलता हुआ वहाँ चला आया था।पानी और बादलों के बीच हम जो महसूस कर रहे थे,उसका साझा करने के लिए मुकम्मल शब् हमें नहीं मिले। ठंड महसूस हो रही थी और किस्मत से भुट्टे मिल गए और सबकी एक राय बन गयी कि एकएक सब खाएँगे। कुछ ऐसी ही चीजों को खाकर हमारा पेट भर गया था। ड्राइवर ने आकर हमें आगाह किया कि अब आगे बढ़े क्योंकि हमें नेपाल की एक मार्केट भी देखनी है जो शाम पाँच बजे के बाद बंद हो जाती है। हम फटाफट वहाँ से निकल पड़े और अब पशुपतिनगर की ओर हम रुख कर चुके थे।मौसम अब भी खुशनुमा बना हुआ था।

पश्चिम बंगाल की सीमा को छूता हुआ नेपाल का पशुपतिनगर दोनों तरफ आनेजाने के अत्यंत सुगम। वैसे ही जैसे आपको दिल्ली से नोएडा(.प्र.) जाना हो। मुझे लगा भारत और नेपाल सहजस्वाभाविक मित्र हैं, तो इसके पीछे इनके भूगोल की बड़ी भूमिका है। हम नेपाल की मार्केट में प्रवेश कर चुके थे। एक सामान् सा बाजार। पर परराष्ट्र की धरती का स्पर्श एक नया एहसास रच रहा था। परायापन कभीकभी जरूरी होता है।अब हम नेपाल की सीमा के साथसाथ दार्जीलिंग के रास्ते पर थे। एक जगह दो गाँव सड़क के इधर और उधर मिले ड्राइवर ने बताया कि बायीं ओर वाला नेपाल और दायीं ओर का भारत का है।एक कुत्ता सड़क पार कर रहा था। मेरे मुँह से बरबस निकला यह नेपाली है या भारतीय। हम सबका ठहाका छूट गया। धुँधलका होतेहोते हम दार्जीलिंग के अपने होटलट्रेवर्ल् इनमें पहुँच गए थे। हल्की फुहार पड़ रही थी दिल्ली परिजनों को फोन कर दार्जीलिंग पहुँचने की सूचना दी। इस सूचना में खुद के आनंद और दूसरों के दुख का साझा भी था और प्रकृति का धन्यवाद भी।

दार्जिलिंग में मौसम खुशगवार था। पर शहर के निचले हिस्से में पूरी धकमपेल थी। पहाडियाँ पूरी तरह बस्तियों से आच्छादित हो चुकी हैं। हाँ आसमान में बादलों का रेला जरूर लगा रहता है। यहाँ हमने चाय बागान देखें और उनमें सैर भी की। तिब्बती शरणार्थियों का एक शिविर भी यहाँ है। वे बड़े शानदार कालीन ऊनी कपड़ों का निर्माण यहाँ करते हैं। एक दृढ़ता और विराट संकल् आज भी उन्हें अपनी आजादी का सपना संजोने के लिए प्रेरित किए हुए है। एक जापानी मंदिर भी हमने देखा, बुद्ध का शांति संदेश रचता हुआ।

दो दिन दार्जिलिंग में व्यतीत कर हम कालिमपोंग की ओर निकल पड़े। इस शहर की चर्चा राहुल जी ने अपने यात्रावृतांतों में विस्तार कर रखी है। कालिमपोंग का मुख् बाजार दिल्ली के सदर जितना ही भीड़भाड़ वाला है और लगभग उसी तरह की वस्तुओं की खरीदबिक्री भी यहाँ होती है। देवलो की पहाड़ी यहाँ की सबसे शानदार और ऊँची जगह है। यहाँ से तिस्ता नदी का अद्भुत नजारा दिखता है। पहाड़ों के ऊपर छिपी बस्तियों उसमें रहने वाले लोगों का शांतिमय जीवन मेरे भीतर भय का संचार करता है मुझे हमेशा डर लगता हे कि मैं कभी वैराग् धारण कर लूँ। एक बार शायद 12 वीं कक्षा में था तो हरिद्वार के सतपाल महराज के आश्रम में इसी उद्देश् से पहुँच गया था। खैर, कालिमपोंग में बहुत से बौद्ध विहार हैं और फौज की छावनी भी। पर, लोग वैसे ही संघर्षरत हैं, जैसे कहीं और।

क्रमश: जारी

तोमिअोका रेशम मिल: विश्व धरोहर

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कुछ दुविधा के बाद सोचा, आज प्रकृति को छोड़ किसी अौर जगह की अोर चला जाय। इसलिए गुंमा प्रीफेक्चर में स्थित एक पुरानी सिल्क मिल देखने गया। इसे अब विश्व-विरासत का दर्जा हासिल है।तोमिअोका सिल्क मिल 1872 में बनी थी। अंदर ही क्लीनिक अौर स्त्री कर्मियों के रहने की व्यवस्था थी। उस समय के हिसाब से बड़ा विशाल प्रांगण था। रास्ते में अनेक गाँव पड़े अौर वैसे ही एक छोटी ट्रेन जो ताकासाकी नामक शहर से चलती है। तोमिअोका का कस्बा भी शांत है अौर यहाँ से लगभग पंद्रह मिनट पैदल चलकर मिल देखने पहुँचा जा सकता है। अौद्योगिक इतिहास को जानने का यह सबसे पुख्ता उदाहरण है।

बाद में लौटते हुए तकासाकी शहर को छोड़ कवागोए का रुख कर लिया। कवागोए भी सवारा गाँव की तरह एदो युग में बना-बसा गाँव है। तो मन में तुलना का भाव था कि सवारा अौर कवागोए में फर्क क्या है। किसी तरह वहाँ पहुँचा, क्योकि एक बस लेनी थी, जिसकी जानकारी मुझे नहीं थी। पर सावारा जैसा आनंद कवागोए में न है। तोक्यो के करीब होने से शहरीकरण का प्रभाव ज्यादा है। हाँ घर वैसे ही पुराने वैभव अौर एदो-युगीन स्थापत्य के साथ खड़े हैं। पर सड़क पर वाहनों की भीड़ कुछ ज्यादा ही है।