भारतीय संस्कृति का प्रतिबम्ब: जापान

जब किसी विदेशी का संस्पर्श परायी संस्कृति के साथ होता है तब उसे जानने-समझने के पैमाने अपनी संस्कृति से ही उठाने पड्ते हैं। अपनी संस्कृति बरबस उसके सामने एक जीवित अवयव की भाँति आ खड़ी होती है। जापान में पाँच वर्षों तक रहने का अनुभव जब संकलित करने का प्रयास करता हूँ तब बहुत सी चीजें छूट जाती हैं जिन्हें फिर कभी समेटने की लालसा बची रहती है। भारत और जापान के संबंध बाकी दुनिया की तरह नहीं पहचाने जा सकते। यह एक अनूठा और विस्मयकारी संबंध है जिसकी शुरुआत दर्शन के परकोटे से होती हुई, इतिहास, संस्कृति, मिथक, भाषा-साहित्य, राजनीति और आर्थिकी के दायरों को समाहित करती चलती है। समय-समय पर इनमें से कोई क्षेत्र विशेष अधिक उभर आता है तो कोई नदी के प्रवाह की तरह सतह के नीचे पूरी ऊर्जा से चलायमान रहता है। जापान में रहते और जीते हुए भारत के प्रतिबिंब और प्रतिध्वनियाँ सहसा सामने आ खड़ी होती थी और वे प्राय: अपने देश की ओर स्मृतियों का एक सैलाब मोड़ देती थी। तोक्यों के जिस हिस्से में मैं रहता था वहाँ एक खूबसूरत पार्क था-इनोकाशिरा। बहुत दिनों तक शाम के धुँधलके में उस उद्यान में यूँ ही टहलने चले जाया करता था। वहाँ एक भव्य काष्ठ-मंदिर है जो एक झील नुमा जलस्रोत के बीचोंबीच अवस्थित है। वहाँ आते-जाते लोगों को देखना, प्रार्थना में करबद्ध हाथों को निहारना तनावरहित होने का एक सुगम उपक्रम हुआ करता था। एक दिन दक्षिण एशियाई विभाग के निदेशक माननीय ताकेशि फुजिइ जी ने बताया कि वह मंदिर देवी ‘बेंजाइतेन’ का है जो भारतीय देवी सरस्वती का ही प्रतिरूप हैं। इस जानकारी से मेरा मन उत्कंठा से भर गया। अब वह मंदिर मेरे लिए एक स्थानीय तीर्थ-सा हो चला था जिसमें एक अतिरिकत श्रद्धा का समावेश हो गया था। जब भी कोई भारतीय मित्र मुझे मिलने आता मेरी बलवती अभिलाषा होती कि उस मंदिर के दर्शन उसे जरूर करा दूँ। बाद में तो जगह-जगह बौद्ध प्रतिमाओ, मंदिरों और स्मृति-स्थलों पर भारतीय जीवनधारा की पदचाप सुनाई देने लगी। नारा मे बोधिसेना की लहराती धर्म-पताका, गौरवशाली अशोक स्तंभ, कामाकुरा की महाकाय बौद्ध प्रतिमा, नेताजी बोस का अस्थिकलश, तमा की विराट श्मशान-भूमि में समाधिस्थ रासबिहारी बोस, तोक्यो में भारतीय दूतावास के पास जापान के राष्ट्रीय स्मारक में विराजमान विधिवेत्ता राधाबिनोद पाल की श्रद्धामूर्ति, स्वामी रामतीर्थ, विवेकानंद, कविवर  रबीन्द्र की, बरकातुल्ला खाँ के अवदान, ‘दो आँखें बारह हाथ’ फिल्म में चित्रित केगोन का जल प्रपात, निक्को में गाँधी जी के चिरपरिचित तीन बंदरों की प्रतिकृतियाँ, नोकोगिरियामा के विराट शिलापट पर उतकीरित शांत बुद्ध; अनेक संस्मरण हैं जो भारत की भावधारा को जापान की भूमि पर प्रवहमान बनाते हैं। कहें तो कह सकते हैं कि भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के परागकणों की गंध वहाँ के वायुमंडल में सहज महसूस की जा सकती है। यही कारण है कि भारत को देखने का जापानी कोण पश्चिमी दुनिया से अलग अधिक आत्मीयता और कृतज्ञता से भरा हुआ है। 

dsc_0470                                                    [नारा का प्रसिद्ध बौद्ध मंदिर: जापान में बौद्ध धर्म का प्रस्थान स्थल]

पराया देश समय की महत्ता बताता है। मन उद्वेलित रहता था कि अनेक जगहों को देख लूँ, भोजन का स्वाद चख लूँ, पहाड़ों की प्रदक्षिणा कर लूँ, सागर की नीली गहराइयों में उतर जाऊँ, अविरल बहती सलिला से संवाद कर लूँ, देवालयों में बैठी आत्माओं की छाया में अपने पूर्वजों की अनुगूँज सुन लूँ और फिर वहाँ की राजनीति और अर्थतंत्र की हलचलों को पकड़ लूँ, सामाजिक वेदनाओं का संधान करूँ; साथ ही, छात्रों को भारत भूमि की विराट संस्कृति तथा हिंदी साहित्य के वैभव से परिचित करा दूँ। अनेक इच्छाएँ और लक्ष्य के अनंत छोर मेरे मन को घेरे रहते थे । यायावरी ही एकमात्र उपाय था जो इन हसरतों को अंजाम तक ले जा पाता। थोड़े दिन बीते तो शहर अपना लगने लगा और घुमक्कड़ी आासान हो चली। प्राय: हर सफ्ताहांत किसी अनजाने कोने की ओर निकल पड़ता, अकेले। झरती बारिश में और आकाश से उतरते सफेद बर्फ के फाहों में भ्रमण आह्लादकारी था। कई बार तो चेतावनी के बावजूद भी चक्रवातों और बवंडरों को किसी कोने से देख लेने का मनोवेग इतना तीव्रतर होता कि बीमार पड़ने तक की नौबत आ जाती। तोक्यो के इर्दगिर्द फैले क्षेत्र को कांतो कहा जाता है। एक दिवसीय भ्रमण के लिए सबसे बढ़िया और किफायती यातायात मेट्रों की ट्रेनें हैं जो बड़े ही कठोर अनुशासन से चलती हैं। एक मिनट की भी देरी नहीं होती। इस परिवहन व्यवास़्था पर कई किताबें और वृत्तचित्र सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। यह देशाटन के लिए एक बड़ा सुभीता है। जापानी जीवन-शैली को निकटता से परखने का अवसर इनके बिना संभव न हो पाता।

भारत-जापान संबंधों की शुरुआत मदुरै में जन्में बोधिसेना के जापान पहुँचने से हुई थी। वे एक भिक्षु थे जो चीन के वुताइ पर्वत की तीर्थ-यात्रा पर थे। वहाँ उनकी भेंट जापान के तत्कालीन सम्राट शोमू के राजदूत से हुई। अब तक जापान के लोगों की बौद्ध दर्शन संबंधी जानकारी चीनी और कोरियाई भिक्षुओं के आवागमन पर ही आधारित थी। एक भारतीय की चीन में उपस्थिति को जापानी राजदूत ने अवसर के तौर पर देखा और सम्राट की ओर से उन्हें जापान यात्रा का निमंत्रण दिया जिसे बोधिसेना ने सहर्ष स्वीकार किया। बोधिसेना, कंबोडिया और विएतनाम होते हुए सन् 736 ई० में आोसाका पहुँचे और फिर वहाँ से तत्कालीन राजधानी नारा की ओर रवाना हुए। बोधिसेना की प्रत्यक्ष उपस्थिति से बौद्ध धर्म का विधिवत शुभारंभ जापान में हुआ। नारा का तोदाई-जी मंदिर (ऊपर का चित्र), जो एक विश्व धरोहर है, आज भी इसका साक्षी है। तोदाई-जी मंदिर के प्रांगण में मुक्त विचरते मृगों का रेला एक अलग ही आनंद-विधान की रचना करते हैं। इसी मंदिर में बुद्ध की 500 टन वजनी और 15 मीटर ऊँची कांस्य-मूर्ति विराजमान है। यह विश्व की सबसे विशाल कांस्य-प्रतिमा भी है। इसी तरह की एक भव्य एवं विशाल बौद्ध आकृति कमाकुरा नामक शहर में है जो तोक्यो से काफी नजदीक है। यहाँ कई बार जाना हुआ। 

जापान की आबादी हमारे उत्तर-प्रदेश से आधी लगभग साढ़े बारह करोड़ की है और क्षेत्रफल भी राजस्थान और हरियाणा के बराबर है। अधिकांश हिस्सा पर्वत श्रेणियों से ढका है और जिन पर ज्वालामुखियों का विस्तार है। कम हिस्से हैं जहाँ बसावट है। लगभग आधी आबादी तीन बड़े शहरों तोक्यो, आोसाका और नागोया के इर्द-गिर्द रहती है।तीन बड़े धर्म-शिंतो, बौद्ध और ईसाई-प्रत्येक नागरिक के जीवन का अंग है। धार्मिक कट्टरता नगण्य है और आधुनिक युवा वर्ग में ईश्वर के प्रति आस्था का सर्वथा अभाव है। धर्म एक संस्कृति में तब्दील हो चुका है, जो तीर्थाटन और पर्यटन में विभेद नहीं करता। मदिरापान जीवनशैली का अविभाज्य घटक है। मांसाहार और शाकाहार का भेद जापानी नहीं जानता। हमें जब-जब परिवार के साथ यात्रा करनी होती तब अपनी पूरी और पीले आलुओं का लंच साथ ले जाना पड़ता। तरह-तरह की ग्रीन-टी (ओचा) हमारी चाय की तरह प्रसिद्ध और लोकप्रिय है। साइकिल और पैदल चलने के निर्धारित पथ हैं जिन पर कोई अवैध कब्जा नहीं है। कारों की भरमार के बावजूद लोग साइकिलों और मेट्रों से ही प्राय: यात्रा करते हैं। आर्थिक समानता कमोवेश बनी हुई है और शत-प्रतिशत साक्षरता ने जिस भावबोध को विकसित किया उसमें दिखावेबाजी, बातूनीपन और छद्म श्रेष्ठता का सहज तिरस्कार कर दिया जाता है। लक्ष्मीधर मालवीय-जो महामना के पोते थे-जापान के क्योतो शहर में रहते थे। विगत वर्ष ही उनका देहांत हुआ। वे कहा करते थे कि हम भारतीय भाषा से खेलते हैं, उससे वितंडा रचते हैं, जापानी स्वाभाव से मौनकामी है और भाषाई वितंडावादी को बड़ी गर्हित नजरों से देखता है, उससे किनारा कर लेता है। राजनीति का सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में बेहद कम हस्तक्षेप होता है। लोग प्रशासनिक तंत्र पर भरोसा करते हैं। सरकारें अपनी जवाबदेही सुनिश्चित करती हैं। धरने-प्रदर्शन कम होते हैं पर जब भी होते हैं तब भी आम जनता प्रभावित नहीं होती। झुंडवाद और भीड़तंत्र से लोकनीति का निर्माण और नियंत्रण नहीं होता। नागरिक एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील रहते हैं। खोयी हुई चीजें बिना किसी क्षति के सौ प्रतिशत मिल जाती हैं। निंदारस का नकार ही देखने को मिलता है। जापानी नागरिक एक बेहद अनुशासित जीवन शैली जीता है। काम पर एक मिनट की देरी अपराध जैसे महसूस की जाती है। प्रकृति के प्रति स्वाभाविक आदर देखने को मिलता है। सड़के, पार्क, नदियाँ साफ-सुथरे बने रहते हैं। तिनका भर भी गंदगी देखने को नहीं मिलती। सड़कों पर हार्न बिलकुल नहीं बजते। बिना पूर्व तय किए, दूसरे से मिलना नामुमकिन है। फोन नहीं किए जाते। ई-मेल या संदेशवाही मोबाइल ऐप्स का ही इस्तेमाल किया जाता है। फोन तभी जब जीवन-मृत्यु का प्रश्न हो। ऐसा नहीं तो आप बेहद अगंभीर माने जाते हैं। मुझे इस बात को आत्मसात करने में महीनों लगे।

बोधिसेना जब जापान पहुँचे तो धर्म-दर्शन के साथ संस्कृत भाषा भी ले गए थे। आज जापान में तीन लिपियाँ-कांजी, हिरागाना, कताकाना-लिखित भाषा के लिए प्रचलित हैं। कहा जाता है कि कताकना पर संस्कृत का स्पष्ट प्रभाव है। अनेक संस्कृत शब्द जापानी में देखने को मिल जाते हैं जिनमें मुझे ‘तोरी’ (तोरण-द्वार) बहुत प्रिय लगता है। हर जापानी मंदिर के बाहर प्राय: तोरी अवश्य होती है। इसी तरह भारतीय मिथकीय चरित्र भी देखने को मिलते हैं जिनमें सरस्वती, यम, गणेश की प्रतिकृतियाँ शामिल हैं। देश के दो विश्वविद्यालयों-ओसाका और तोक्यो विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय में हिंदी की शोध स्तर तक की पढ़ाई होती है। दोनों ही विश्वविद्यालयों में भारत-प्रेमी शिक्षक मंडल मौजूद है। इनमें प्रसिद्ध हैं-पद्म श्री तोमिओ मिज़ोकामि, अकिरा ताकाहाशी, ताकेशि फुजिइ, यशोफुमि मिजुनो आदि। इनके आतिरिक्त कई अन्य विश्वविद्यालयों में समान्य शिक्षण के तौर पर हिंदी का अध्यापन किया जाता है। हिदेआकि इशिदा हिंदी के साथ मराठी साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। तोषियो तनाका जी ने हिंदी की कुछेक महत्त्वपूर्ण रचनाओं का अनुवाद जापानी भाषा में किया है। बहुधा जापानी विद्वत समाज चुपचाप, बिना प्रचार-प्रसार के अपने अनुसंधान में लगा रहता है। वे अपने किए गए कार्यों की जानकारी, संकोचवश, सहजता से साझा नहीं करते। संकोच, जीवन के परिवेश में छाया की भाँति टहलता है। एक बार मेरी एक छात्रा ने बताया कि वह अपने माता-पिता से भोजन के समय थोड़ा शराब की खुमारी के बाद ही सहजता से बात कर पाती है। बातचीत भी एक साधना और सचेत व्यवहार जैसा बना हुआ है। प्रश्न और शिकायतें प्राय: जज्ब कर ली जाती हैं। अक्सर मैने देखा कि छात्र कक्षाओं में सवाल नहीं पूछते थे, बावजूद मेरे उकसाने के। इससे ऐसा लगता है कि एक घुटन भी पैदा हुई है जिससे हर रोज लगभग 30 लोग आत्महत्या जैसे कदम उठाने को विवश होते हैं, जो कम जनसंख्या के हिसाब से बहुत ज्यादा है। विवाह जैसी संस्थाओं का विघटन हो रहा है और हर साल लगभग तीन लाख के करीब आबादी में गिरावट आ जाती है।  

ऐसे ही घूमते-घामते जापान की सांस्कृतिक राजधानी क्योतो और व्यावसायिक राजधानी आोसाका का भी भ्रमण हुआ। हिरोशिमा के भग्न गुम्बद को देखकर दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका का सहज अनुमान कर पाया।क्योतो अपने प्राचीन रूप को अभी भी सहेजे हुए है। अनेक मंदिर, कलाएँ, पारंपरिक परिधान, नृत्य, नाट्य, संगीत, पाक विद्या, स़्थापत्य के नमूने पूरे शहर में बिखरे पड़े हैं। इसका बड़ा कारण यह भी है कि विश्वयुद्ध के समय इस शहर पर कोई बमबारी नहीं हुई। केन्काकू-जी  स्वर्ण-मंदिर अत्यंत आकर्षक है। प्रकृति के बदलते परिवेश में यह अपनी छटा बदलता रहता है। यहीं पर विश्व प्रसिद्ध मंदिर क्योमिजूदेरा भी है, जो एक खूबसूरत पहाड़ी पर अवस्थित है. इस मंदिर को देखकर अपने तिरुपति तिरुमला तीर्थ की स्मृति आना स्वाभाविक था। क्योतो के पास का शहर ओसाका है जो जापान का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। यहाँ से हिरोशिमा तक की यात्रा बुलेट ट्रेन-सिनकानसेन-से लगभग तीन घंटे में पूरी हो जाती है। हिरोशिमा, जैसा कि हम सब जानते हैं, दूसरे विश्वयुद्ध में अणु बम के प्रहार से पूरी तरह ध्वस्त हो गया था। लेकिन, अब वह पूरी तरह पुनर्जीवित हो चुका है। यादगार के लिए एक गुंम्बद को संरक्षित किया गया है और एक शांति-मेमोरियल तथा संग्रहालय की स्थापना की गई है। दुनिया से नाभिकीय अस्त्रों की समाप्ति के अभियान प्राय: यहीं से संचालित किए जाते हैं। लेकिन हिरोशिमा का भूदृश्यीय सौंदर्य सागर के बीच स्थित एक छोटे से द्वीप मियाजिमा में ही देखने को मिलता है। समुद्र के बीच स्थित एक भव्य श्राइन है जो पूर्णत: लकड़ी का बना है साथ ही एक विशाल तोरण द्वार खड़ा है-देव आत्माओं का आह्वान करते हुए।

dsc_0103  [क्योतो का किंकाजू मंदिर]

थोड़ा इतिहास और राजनीति की ओर देखें तो हम भारतीयों को नेताजी सुभाष बोस की याद जापान के संदर्भ में सबसे पहले आती है। तोक्यो के कोएन्जी शहर में स्थित रेन्को-जी श्राइन में उनका अस्थि-कलश संरक्षित है। लेकिन जिस एक व्यक्ति के बारे में मैं बिल्कुल नहीं जानता था वे विधिवेत्ता राधाबिनोद पाल हैं। वहाँ के राष्ट्रीय स्मारक-यासुकुनी श्राइन- में इनको गहरी श्रद्धा और आदरपूर्वक प्रतिष्ठित किया गया है। आमेरिका, चीन और दक्षिण कोरिया के विरोध के चलते जापान का कोई प्रधानमंत्री यहाँ नहीं जाता था। ये तीनों देश इस स्थल को दूसरे विश्वयुद्ध को न्यायोचित ठहराने और महिमांडित करने की जापानी कोशिशों के तौर पर देखते हैं। हालाँकि विगत प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने पहली बार यहाँ जाकर साहस दिखाया। राधाबिनोद पाल के योगदान को आज एक वेब सीरीज ‘तोक्यो ट्रायल्स’ में प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। वे अकेले ऐसे जज थे जिनके विरोध के चलते अनेक जापानी सैनिकों को द्वितीय विश्वयुद्ध के दोष से मुक्त कर दिया गया और वे फाँसी की सजा से बच सके थे। इसी तरह का व्यक्तित्व रासबिहारी बोस का था जो आजाद हिंद सैनिक के तौर पर जापान गए थे वहाँ उनकी स्मृति गहरे तक पैठी। उनकी समाधि मेरे विश्वविद्यालय के बहुत ही करीब तमा सिमेट्री में है। लेकिन, मैं पहली बार वहाँ आोसाका से आए अपने मित्र प्रो० चैतन्य प्रकाश योगी के साथ गया जहाँ उस विशाल श्मशान भूमि की नीरवता में हम घंटों पैदल विचरते और बतियाते रहे। परंपराओं का प्रवाह कभी दृश्यमान तो कभी अनदेखा भी रहता है। मेरे मेधावी छात्र यूता सतो, जो अवधी भाषा सीखने के मेरे पास आ जाया करते थे, से प्रसंगवश मैं अपने गृह जनपद अयोध्या में प्रचलित ‘दरिद्दर भगाने’ की परंपरा का उल्लेख कर रहा था। तब उन्होंने इसी तरह के एक अनुष्ठान-सेत्सुबून-के बारे में बताया। पितृपक्ष जैसे अनुष्ठान भी जापान जनजीवन में श्रद्धापूर्वक मनाए जाते हैं। 

dsc_0435[ओसाका शहर: रात का नजारा]

ऐसा नहीं है कि जापानी लोगों की भारत के प्रति उत्सुकता केवल बौद्ध दर्शन को लेकर ही रही हो। फूकुओका के निवासी तत्सुमारू सुगियामा ने अपनी करोड़ों की जापानी संपत्ति बेचकर पंजाब में वृक्षारोपण का व्यापक अभियान चलाया जिससे राजस्थान का पसरता मरुस्थल थम गया। वे गाँधी जी के जीवन-दर्शन से बेहद प्रभावित थे और एशियाई श्रेष्ठता के पैरोकार भी। भारत के प्रति उनकी गहरी श्रद्धा थी। इसी तरह सुदूर प्रांत-नीगता- के तोकियो हाशेगावा ने मिथिला भिति-चित्रों का विशाल संग्रहालय स्थापित किया हुआ है जो आज भी प्राणवान बना हुआ है। वे बहुधा भारत आते हैं और उत्तर-पूर्वी राज्यों खासतौर पर मणिपुर में अपना समय व्यतीत करते हैं।

अभी हाल ही में भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के नए समूह-क्वाड-को पुनर्जीवित किया गया है। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का जापान में विशेष आदर है। क्वाड के इस प्रयत्न से दोनों देशों के और करीब आने की संभावना है जिनमें चीन से आ रही चुनौतियों का दोनों मुल्कों को सामना भी करना है। प्राय: चीनी युद्धपोत जापान की समुद्री सीमाओं में घुसकर अपनी धौंसपट्टी जमाते रहते हैं जैसाकि वे हमारे लद्दाख, सिक्किम या अरुणाचल में करते हैं। अनेक जापानी कंपनियाँ भारत को नए निवेश स्थल के तौर पर देख रही हैं। ऐसा हो तो हमारे आर्थिक संबंधों में अधिक प्रगाढ़ता आएगी और दोनों राष्ट्र समृद्धि की नई राहों पर चल पड़ेंगे।

       जापान एकांत और नीरवता की पोषक भूमि है। जहाँ दूसरे लोग बेवजह आपके जीवन में प्रवेश करने से बचते हैं। बारिश प्राय: हो जाया करती है जो हम जैसे दिल्लीवासियों के लिए रोमांच लाती है लेकिन जापानी इसे मुसीबत मानते हैं। जापान के उस सन्नाटे मेरा प्रवास एक आत्मान्वेषण का उपक्रम ही तो था जिसने बहुत कुछ बदला है। पराई संस्कृतियाँ परिवर्तन की दस्तक देती है और परिवर्तन का घटित होते रहना ही जीवन का सर्वोच्च आनंद है।

हिरोशिमा का पर्यटक

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अब

हिरोशिमा में सब सामान्य है

चलती हुई ट्राम

बहती हुई नदी

अौर पड़ोस में लहराता सागर

लोगों की आवाजाही

सड़कों पर चलता कामकाज

बसों का टिकट बाँटती

सुंदर लड़की, मुस्कराती

ज्ञापित करती धन्यवाद

बार-बार

वे दुकानों की कतारें

रेलों का आवागमन

बागीचे में सफाई करता कर्मचारी

अौर

टहलती बूढ़ी मायी

बाहर की गगन छूती इमारतें भी

सामान्य हैं

आते-जाते तस्वीर उतारते पर्यटक भी तो।

पर पर्यटक

सब एक तो नहीं

कुछ खाली कुछ भरे हुए

कुछ जिंदा कुछ मरे हुए

कुछ संकोची कुछ डरे हुए

कुछ इतिहासविज्ञ कुछ नॉर्मल

थोड़े अौसत थोड़े एबनॉर्मल

शोधार्थी भी विद्यार्थी भी

कुछ चाटते आइसक्रीम

कुछ देखते मोबाइल स्क्रीन

थोड़े सेल्फी वाले भी

दिलजले दिलवाले भी

लंबे नाटे गोरे काले भी

अकेले परिवार वाले भी

पर

वह कौन पर्यटक है हिरोशिमा का

एकांत खड़ा

प्रतीक्षारत किसी गाइड का

विचित्र

गाइड

जिसकी हड्डियाँ अभी भी हैं

बलिष्ठ

दशकों की उम्र पार कर भी

अनुभव का अथाह जल समेटे

चला आया है जो अविरल अथक

चेहरे पर झुर्रियाँ

पर चमक अौर स्वाभिमान का दर्प

बिल्कुल धँधला नहीं

हिरोशिमा की चहल-पहल में

इस गाइड को

जानने वाले ज्यादा नहीं हैं

‘मलाल है, इसका’

उस एकाकी पर्यटक ने पूछा

‘न! बिल्कुल नहीं’ जवाब था

मुझे न जाने तभी अच्छा है

क्योंकि

बताने के लिए सिर्फ वेदना ही तो है मेरे पास

इस हिरोशिमा की

जबकि, देखो

अब

सब बदल गया है

अौर यह बदलाव प्रीतिकर है

बरकरार रहे, बस।

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वह बूढ़ा गाइड

चेहरे की झुर्रियों में लिपटा

जैसे सशंकित हो उठा हो

हिरोशिमा की पुनरावृत्ति को लेकर

कहीं भी कभी भी

पर्यटक ने उस उदास चेहरे को देखा

बुद्ध का प्रतिरूप हो

ज्यों

पर्यटक बोला ‘कुछ बताइए

इस स्मारक के बारे में’

‘वह सुबह थी

झिलमिलाते सूरज की सुबह

बच्चे स्कूल जा रहे थे

किताबे लिए हाथ

भविष्य थे वे, बेहतर भविष्य हो इस धरती का

इस सपने के साथ

छोटे कदमों अौर खिलखिलाती हँसी की उमंग थी उनमें

माँए थी

जो उनकी उँगली थामे

आश्वस्त करती थीं उन्हें, भयमुक्त

घरों में वृद्ध

अपने बागीचों को सवारने में थे तल्लीन

सँवार रहे थे दुनिया का एक कोना

सड़को पर युवा

अपने जीवन अौर देश की चिंता में थे व्याकुल

सहसा

आसमान में एक गिद्ध मडराया

डैने पसारे हुए

अौर

सूरज डूब गया धरती पर

धरती का परिदृश्य

मिथक कथाअों के डेमन का संसार बन गया

अाग, धुँए के पहाड़

उठ खड़े हुए

निगल लिया

धरती की वनस्पति

हरी दूब

कली जो खिलने को ही थी

फूल भी

परिंदे, जो डालियों पर बैठे थे खामोश

अौर वे भी जो उड़ान भर रहे थे

चहकते हुए

निगल लिया

उस सायकिल पर चलते सवार को

पीछे बैठी बिटिया को

उसके हाथ में खेलती गुड़िया को

हवा में उड़ते संगीत को

अल्हड़ युवती के राग को

युवा जोड़े के अनुराग को

उनकी हस्त-गुंफित बाँहों

विरही की आहों को

निगल गया

सभ्यता के स्थापत्य को

कृत्य को अकृत्य को

नदी में चलते जल को

सब चल-अचल को

डेमन का दावानल

मांसल त्वचाएँ

बलिष्ठ भुजाएँ

मानव का दर्प

रेंगता सर्प

सपने देखती आँखें

वृक्षों की साखें

नाव में बैठा सन्यासी

आश्रम का उदासी

जंगल का वनवासी

तितली के पंख

सागर के शंख

गौरैया की चोंच

चिंतन सोच

आभूषण परिधान

समस्याएँ समाधान

चंचल चींटी

जलती अँगीठी

मसीहा की मज़लिस भी

भस्मीभूत, सारे देवदूत

इतना कह

मौन हो गया

वह

सत्तर वर्षीय वृद्ध

अनुभव सिद्ध जर्जर जड़ीभूत अटल इतिहास साक्षी

शांति अकांक्षी

अौर

पर्यटक अपलक रहा देखता उसे

महसूस करता कुछ

अजाना, अविश्वसनीय

तदाकार होता हुआ

tori

शाम

दूर मियाजिमा के उथले तट पर

मद्धिम लहरों की चपलता निहारते

गेरूए तोरण के बीच

ढलते सूरज की आहट को सुनते हुए

पर्यटक ने

टीप लिखी-

‘हिरोशिमा की वह सुबह फिर कभी न हो, न हो कभी मानव इतिहास में’

जापान में हिन्दी

हंस, सितम्बर २०१५
       राम प्रकाश द्विवेदी
भाषा एक साथ कई कार्य करती है। जिनमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को सहज ही पहचाना जा सकता है। भारत और जापान को आपस में जोड़ने के लिए बौद्ध धर्म के प्राचीन धागे का उल्लेख तो बहुधा किया जाता है लेकिन आधुनिक समय में हिन्दी ने व्यावसायिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को सक्रिय बनाने में बड़ी भूमिका निभायी है। जापान में हिन्दी के मुख्य आयाम शिक्षण, शोध, अनुवाद, खानपान, सिनेमा और संस्कृति के क्षेत्रों में पहचाने जा सकते हैं।
जापान के दो विश्वविद्यालयों में हिन्दी की विधिवत पढ़ाई होती है, यानी आनर्स, एम०ए० तथा शोध स्तर तक की। जिसमें एक राजधानी तोक्यो (तोक्यो विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय) औरदूसरा विश्वप्रसिद्ध व्यावसायिक शहर ओसाका (ओसाका विश्वविद्यालय) में स्थित है। दोनों विश्वविद्यालयों में हर साल बीसपचीस नए विद्यार्थी प्रवेश लेते हैं। छात्रों को पढ़ाने का सिलसिला निश्चय ही वर्णमाला ज्ञान से होता है परंतु अपनी परिपक्व आयु और समझ के चलते वे शीघ्रता से भाषा एवं साहित्य के साथ जुड़ जाते हैं। अब हिन्दी पढ़ने वाले छात्र भारत की बढ़ती हुई अर्थव्यस्था के प्रति अधिक आकर्षित हैं। परंतु कुछेक छात्रों की पारिवारिक, शैक्षणिक पृष्ठभूमि ऐसी होती है जिसके चलते वे भारत और हिन्दी के प्रति अपना रूझान विकसित कर पाते हैं।
उपरोक्त दो विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त तोक्यो विश्वविद्यालय, तोयो विश्वविद्यालय, एशिया विश्वविद्यालय, सोफिया विश्वविद्यालय (जोचि विश्वविद्यालय), तोकाइ विश्वविद्यालय, दाइतो बुंका और ताकुशोबु विश्वविद्यालय जैसे विश्वविद्यालयों में डिप्लोमा या प्रमाणपत्र स्तर तक की पढ़ाई होती है। अध्ययन का सीधे तौर पर नौकरी से संबंध नहीं होता है। मसलन हिन्दी पढ़ने वाले अनेक छात्र बैंकिग, इंजीनीयरिंग, कॉस्मेटिक आदि कंपनियों में भी जा सकते हैं। इसलिए भाषाअध्ययन मूलत: स्वेच्छा और आत्मप्रेरणा से जुड़ा मामला है। कुछेक छात्र अपनी अभिरूचि के चलते अध्ययन को गंभीरता से लेते हैं और आगे चलकर शोध कार्य में सक्रिय हो जाते हैं।
जापान में शोधकार्य बेहद ईमानदारी, जवाबदेही और निष्ठा से करने का स्वाभाव है।श्रम के प्रति सम्मान दैनिक जीवन का हिस्सा है जो शिक्षण और शोध में भी परिलक्षित होता है।परफेक्शनजीवन काएकसामाजिक मूल्यसा बन गया है। इसके चलते हिन्दी और भारतीय इतिहास, राजनीति, प्रशासन और समाजशास्त्र के बारे में किए जा रहे शोधों का स्तर काफी ऊँचा है। आश्चर्य होता है कि वे विद्यार्थी जो वर्णमाला से जूझ रहे थे देखतेदेखते कैसे भारतीय जनसमाज की गहराइयों से रूबरू होने लगते हैं।इसका उदाहरण कत्सुरो कोगा एवं अकिरा ताकाहाशी द्वारा बनाए गए शब्दकोश को देखकर होता है।इसमें हिन्दी की तमाम बोलियों के कम पहचाने शब्दों को पाकर आश्चर्य हो जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ हमारे बारे में जापान के लोगों को अधिक पता है। अनेक जापानी विद्वान भारत में महीनों रहकर अपनी शोधसामग्री का संकलन करते रहते हैं। कुछेक तो एैसे भी हैं जो तथ्यों के मिलान के लिए दुनिया के अन्य देशों के पुस्तकालयोंसंग्रहालयों तक की बारबार यात्राएँ करते हैं। इंटरनेट के ज़माने में भी वे सीधेस्रोत तक पहुँचने की कोशिश करते हैं। प्रो०हिदेआकि इशिदा हर छमाही हिन्दी साहित्यनामक पत्रिका काप्रकाशन करते है।इसकी भाषा तोजापानी हैपरंतु केंद्र मेंहिन्दी साहित्य होता है।इसीप्रकार ओसाका विश्वविद्यालय में कुछेक वर्ष पूर्व तक ज्वालामुखीपत्रिका का हिन्दी में ही प्रकाशन होता था। जिसकी प्रतियाँ आज भी वहाँ सुरक्षित हैं।
अच्छे शोध के लिए आवश्यक है समृद्ध आधार एवं सहायक सामग्री की उपलब्धता। जापानी पुस्तकालयों में पुस्तकों, पत्रिकाओं, जर्नलों के उपयोगी संकलन मिल जाते हैं। उदाहरण के लिए तोक्यो विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय की लायब्रेरी में अनेक रचनाओं के प्रथम संस्करण मिल जाते हैं। गोदानकापहला संस्करण भीयहाँ उपलब्ध है।इसीप्रकार जागरणमाधुरी और हंस(नया) की पूरी जिल्दों को यहाँ देखापढ़ा जा सकता है। हिन्‍दी की दुर्लभ सामग्री की उपलब्‍घता को लेकर प्रो0 फुजिइ ताकेशी ने एक  सुंदर लेख लिखा है। अब फ़िल्मों और वृत्तचित्रों की डीवीडी की खरीद के काम में भी तेजी आयी है और एक अच्छा कलेक्शन तैयार हो रहा है। पिछले साल से भारतीय मीडिया और भारतीय सिनेमा का अध्यापन शुरू हुआ तो हिन्दी की डिजिटल सामग्री की व्यापक जरूरत महसूस हुई है। पुस्‍तकालय अच्छे शोध की रीढ़ होता है जो जापान के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में बड़े कायदे से व्यवस्थित किए जाते हैं। अध्ययन सामग्री ढ़ूढ़ने में बहुत कम समय और ऊर्जा लगती है।यहाँ के विश्वविद्यालयों में हिन्दी की प्रचुर सामग्री और उसे इंटैक्ट देखकर आश्चर्य होता है।
जापानी भाषा में हिन्दी की अनेक महत्वपूर्ण रचनाओं का अनुवाद हो चुका है। प्रेमचंद की कहानी क़फनकेदोतीन अनुवाद मिलते हैं। फणीश्वरनाथ रेणु की तीसरी कसमकाभीबेहतर अनुवाद मिलता है।भगवतीचरण वर्मा  के उपन्यास चित्रलेखाका अनुवाद भी बड़े जीवंत रूप में उपलब्ध है। हिन्दी के प्रसिद्ध जापानी विद्वान तोशियो तनाका जी ने भीष्म साहनी के तमसकामार्मिक अनुवाद करजापानी समुदाय कोभारत विभाजन कीत्रासदी सेपरिचित कराया है।उन्होंने हीसाहनी जीकीदूसरी रचना बलराज:मेरा भाईकाभीजापानी अनुवाद किया है। अभी पताचलाहैकिइसके अनुवाद केसिलसिले मेंउन्होंने भीष्म जीसेकईबारपत्राचार किया था।लगभग २४पत्र अभीउनके पाससुरक्षित हैंजोअबएकऐतिहासिक दस्तावेज़ बन चुके हैं। ये पत्र अब तक प्रकाशित नहीं हुए हैं, आशा है वे जल्द ही प्रकाश में आएँगे। इसीप्रकार अनेक अन्य हिन्दी रचनाओं के रोचक, पठनीय और संप्रेष्य अनुवाद जापानी भाषा में उपलब्ध हैं।
जापान में लोग अधिकांशत: घर के बाहर खाना खाते हैं। अतिथियों को भी रेस्त्रां में ही बुलाकर भोजन करवाने का प्रचलन है। यहाँ दक्षिण एशिआई देशों में गहरी मित्रता देखने को मिलती है। क्योंकि परंपरा से लोग भारत से ही परिचित हैं, इसलिए नेपाल, पाकिस्तान और बंग्लादेशी रेस्त्राँ भी भारतीय रेस्त्राँ के नाम अपना लेते हैं। साथ ही भारत का झंडा भी। बहुत से छात्र बताते हैं कि वे हिन्दी में बात करने के लिए इन जगहों पर जाते हैं। खाना खाना और यहाँ के लोगों से हिन्दी में बातचीत करना दोनों उद्देश्यों की पूर्ति यहाँ हो जाती है। तोक्यो शहर में जहाँतहाँ ऐसे भारतीय (जिनमें नेपाली, पाकिस्तानी और बंग्लादेशी शामिल हैं) रेस्त्राँ मौजूद हैं जहाँ उपमहाद्वीप का खाना और संस्कृति की झलक मिल जाती है। यहाँ वे खानपान से संबंधित अनेक शब्दों को सीखते हैं। यह अनौपचारिक रूप से शिक्षण का ही एक हिस्सा है। हमारे यहाँ रूखीसूखी खाय के ठंडा पानी पीनेवाली बातयहाँ नहीं है।लोगखानेपीने पर ही सबसे ज्यादा पैसे खर्च करते हैं। भोजन करना एक सांस्कृतिक व्यावहार है और यह भाषा सीखने का एक कारगर औजार भी।
विदेशी भाषा को अपनाने में वक्त लगता है। हमारे यहाँ विदेशी भाषा का तात्पर्य प्राय: अंग्रेजी है। पर भारत में अंग्रेजी सीखने का पूरा माहौल है। जापान में हिन्दी सीखने के लिए ऐसा परिवेश उपलब्ध नहीं है। हर शब्द सीखना और उसे याद भी रखना कई बार मुश्किल होता है। ऐसे में ये भारतीय भोजनालय अपना कम महत्व नहीं रखते। अनेक छात्र अपनी आजीविका के लिए काम करते हैं। मातापिता से आत्मनिर्भर होकर जीना यहाँ की फितरत है। इसके लिए वे भारतीय रेस्त्राँ में काम तलाशते हैं। कक्षाओं में यह देखने में आता है कि जो छात्र भारतीय रेस्त्राँ में काम करते हैं वे तेजी से हिन्दी में बातचीत करना सीख जाते हैं। उनका उच्चारण भी स्वाभाविक लगता है और बोलचाल का प्रवाह भी सहज जान पड़ता है। इसलिए खानपान की संस्कृति हिन्दी के विकास में सहायक बनी हुई है।
जापान में हिन्दी फिल्में हमेशा तो नहीं देख सकते जैसा कि अमेरिका या ब्रिटेन में होता है पर अक्सर ही कोई फिल्मोत्सव या फिल्मक्लब हिन्दी फिल्मों को दिखाने का उपक्रम करते रहते हैं। फिल्म दिखाने के पूर्व यह जरूरी है कि उसके उपशीर्षक जापानी भाषा में तैयार किए जाय। ऐसा करते हुए छात्रों को हिन्दी सीखने का मौका मिलता है। इसमें बहुत से हिन्दी विद्वानों को भी शामिल किया जाता है। यदि फिल्म का प्रदर्शन व्यावसायिक हो तो अन्यथा छात्रों से ही काम चलाया जाता है। उपशीर्षकों की प्रक्रिया से जुड़े विद्यार्थी समकालीन हिन्दी संवादों को गहराई से समझने का प्रयत्न करते हैं। आम छात्र या नागरिक जो हिन्दी फिल्में देखने जाते हैं वे भी अपने साथ कुछेक नए वाक्य और शब्द सीखकर समृद्ध होते हैं। पिछले दिनों थ्री इडियटफिल्म पूरे देशमेंलोकप्रिय हो गयी थी।उसकी पटकथा काअबजापानी अनुवाद भीउपलब्ध होगयाहै।विद्यार्थी अब कक्षाओं में इस फिल्म के बारे में ऐसे बात करते हैं मानो यह कोई जापानी या उनकी अपनी भाषा की ही फिल्म हो। अनेक हिन्दी फिल्में जापान चुकी हैं और पुरानी फिल्मों पर अनेक शोध कार्य भी हो चुके हैं। इनमें उमराव जानप्रमुख है। मनोरंजक तरीके से हिन्दी पढ़नेपढ़ाने में हिन्दी फिल्मों की अपनी अनूठी भूमिका है।
इसके अतिरिक्त बहुत-सी सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से हिन्दी पठन-पाठन का प्रोत्साहन किया जाता है। जिसमें तोक्यो स्थित भारत के राजदूतावास की अग्रणी भूमिका है। हिन्दी में निबंध लेखन,परिचर्चा, संवाद और वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के आयोजन से विद्यार्थी हिन्दी में अपनी प्रस्तुति के लिए मंच पा जाते हैं। नृत्य और  नाट्य प्रस्तुतियाँ इसमें पूरक की भूमिका निभाती हैं। आजकल कथक यहाँ काफी प्रचलित हो चला है। इसके अलावा अनेक गैर सरकारी और गैर अकादमिक संस्थाएँ भी हिन्दी और हिन्दुस्तान से जुड़ी गतिविधियों का संचालन करती हैं और उसमें छात्र अधिक दिलचस्पी से शिरकत करते हैं।  विदेश भाषा शिक्षण का वह स्‍वरूप नहीं हो सकता जो अपने देश में होता है। उसे कक्षाओं के साथसाथ अन्‍य पूरक कार्यकलापों  से जोडना होता है। कहना न होगा कि जापान और भारत के संबंधों को ताकत देने में हिन्दी एक महत्वपूर्ण कडी है।
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गोदान और जापान

हर शहर और समाज की फितरत अलग-अलग होती है। दिल्ली शहर में सायकिल तो क्या बाइक चलाना भी खतरनाक होता है। जहाँ-तहाँ दुर्घटनाओं की खबरें सुनकर मन कच्चा हो जाता है। इसलिए कभी दिल्ली में रहते हुए सायकिल चलाने की बात भूलकर भी नहीं सोची थी।

जब जापान पहुँचा तो भी यही बात सामने थी कि पराए देश में सड़क पर पैदल ही चला जाय। कोई बात हो गयी तो कैसे किसी से बहसबाजी करेंगे। भाषा तो आती नहीं। इसलिए सायकिल लेने का ख्याल बहुत दिनों तक न अाया था। जब काफी अरसा बीत गया तो आते-जाते एक बात लक्षित की कि यहाँ सभी उम्र के लोग सायकिल की सवारी करते हैं। यहाँ तक कि अस्सी साल की अौरते भी प्राय: सायकिल चलाते दिख जाती हैं। रोजमर्रा की चीजें लोग सायकिल से ही लाते हैं। इसका मतलब यह था कि जापान सायकिल चलाना बहुत ही आम बात है । धीरे-धीरे मैंने देखा कि मेरे आसपास रहने वाले सभी लोगों के दरवाजों पर कम से कम एक सायकिल तो खड़ी ही है। कई दरवाजों पर तो हरेक सदस्य के लिए अलग-अलग सायकिलें है यानी तीन या चार भी। जब विश्वविद्यालय से शाम को घर लौटता तो अपना दरवाजा सूना-सूना लगता। यह सूनापन मेरे स्मृतिबोध में कहीं गहरे जमा हुआ था। पर, बात आयी-गयी होती रही। अक्सर जापान में अपना सारा काम खुद ही करना पड़ता है इसलिए मशरूफियत कुछ ज्यादा ही हो जाती है। एेसे में स्मृतियों के बारे में सोचने के लिए ज्यादा सम्मान, समय अौर अवसर उपलब्ध नहीं होता।

एक दिन मेरे पाकिस्तानी प्रोफेसर मित्र ने सायकिल खरीदने का प्रस्ताव रख दिया। मैने पहली बार में ही मना कर दिया। पर उनका प्रस्ताव मन में घूमता रहा। फुर्सत के क्षणों में इधर-उधर घूमते हुए प्राय: नजर सायकिल की दूकानों पर आ कर टिक जाती। बाजार में तरह-तरह की सायकिलों की भरमार है। तकनीकी नजरिए से बड़ी उन्नत औरसाधारण भी। पैसे के लिहाज से भी देखें तो दस-ग्यारह हजार से शुरू होकर दो-ढाई लाख तक।धीरे-धीरे दरवाजे का सूनापन अखरने लगा।एक दिन रात में जब सहसा नींद खुली तो स्मृतिकोश में दबा वह भाव प्रत्यक्ष हो गया।कभी मेरे गुरू विश्वनाथ त्रिपाठी ने गोदानपढ़ाते हुए यह बात बतायी थी कि इस कृति की मूल संवेदना होरी का वह स्वप्न है जिसमें वह देखता है कि उसके दरवाजे पर एक सजीली गाय बँधी है। होरी, गाय और सूने दरवाजे का यह गहरा बिम्ब एक बार पुन: मेरे सामने प्रत्यक्ष हो उठा था। अब पता चला कि जब-जब मैं दूसरों के दरवाजों पर सायकिल खड़ी देखता हूँ तो मेरे भीतर का सूनापन क्यों उभर आता है।गाय के बँधे होने से जो मरजाद बनती थी शायद वही मरजाद सायकिल के खड़े होने से बनेगी, यह बात दृढ़ता से मन में बैठ गयी। अवध में प्रतिष्ठित किसान होने के लिए गाय का बँधा होना जरूरी है तो अच्छा एवं सुसंस्कृत नागरिक दीखने के लिए जापान में दरवाजे पर सायकिल का खड़ा होना लगभग अनिवार्य सा है। अब तय हो गया कि सायकिल तो लेना ही है।पर कौन सी, यह सवाल फिर भी बना रहा। सामाजिक प्रतिष्ठा बीच में आ खड़ी हुई।

मैंने अपने अड़ोस-पड़ोस में नजर दौड़ाई। तरह-तरह की रंग-विरंगी सायकिलों का जमघट था। गियर वाली, टोकरी वाली अौर वैसी टोकरी वाली जिसमें बच्चे भी आराम से बैठ सकते हैं। इसी ऊहापोह में एक रात सपना आया। मैं एक सायकिल चला रहा हूँ जिसमें एक बच्चा बैठा है। बहुत दूर तक तरह-तरह के नजारे बिखरे पड़े हैं। हमारी सायकिल पहाड़ों-तलहटियों से गुजरते हुए जा रही हैं। आसपास नदी का किनारा भी है। मैं बच्चे से तरह-तरह की बातें कर रहा हूँ, वह भी फर्राटेदार जापानी में।सायकिल की सवारी में अद्भुत आनंद अा रहा था। तभी अलार्म बज उठा। विश्वविद्यालय जाने का समय हो आया था। जब घर से बाहर निकला तो सायकिल विहीन द्वार एक बार फिर अखरा।राहों पर चलते हुए सायकिलें ही सायकिलें नजर आ रही थीं। अब तो मन वो बच्चा भी ढूढ़ रहा था जो सपने में मेरी सायकिल पर बैठा घूम रहा था अौर खूब बतिया रहा था। दो-तीन दिन यूँ ही निकल गए। मन किसी काम में लग नहीं रहा था। मैंने अपने पाकिस्तानी प्रोफेसर मित्र सुहैल साहब से संपर्क किया। उनसे निवेदन किया कि वे अपनी एक्सपर्ट राय दें अौर सायकिल खरीदवा दें। आखिर एक शाम उन्होंने मुझे एक सामान्य सी सायकिल दिलवा दी।जिसमें सब्जी लाने वाली टोकरी तो थी पर बच्चे वाली नहीं। जब सायकिल दरवाजे पर खड़ी हो गयी तो द्वार समृद्ध सा दिखने लगा।मन में भी चैन आ गया। उनका शुक्रिया अदा करने के लिए मैंने चाय पीने की पेशकश की। जिसे उन्होंने सहज ही स्वीकार कर लिया। चाय पीते हुए मैंने सुहैल साहेब से अपने सपने के बारे में बताया। सायकिल अौर बच्चे के बारे में। वे हँस पड़े। कहने लगे वो बच्चा मिल जाय तो आप जरूर उसे अपनी सायकिल की टोकरी में बिठा लें अौर हाँ अगर उसकी माँ मिल जाय तो मेरा पता दे दें।तब से मैं वो बच्चा ढूँढ़ रहा हूँ अौर सुहैल साहब उसकी माँ।

सायकिल आने के बाद मैं अब अक्सर बारह किलोमीटर दूर विश्वविदयालय तक की यात्रा इसी से करता हूँ। पैसे की बचत अौर स्वास्थ्य लाभ दोनों एक साथ चल रहा है। तोक्यो शहर का स्थापत्य अत्यंत लुभावना है। उसके पहाड़ों को काटकर समतल नहीं किया गया जैसाकि दिल्ली की रायसीना अौर अरावली पहाड़ियों को नष्ट कर सपाट मैदान सा बना दिया गया है। ऊँचे-नीचे रास्तों-गलियों के होने से सड़को-राहों पर भीड़ दिखाई नहीं देती। घर-मकान भी एक दूसरे के बिल्कुल आमने-सामने नहीं आते।प्राइवेसी बरकरार रखने के लिए शहर का एेसा स्थापत्य बचाए रखना जरूरी होता है।सुहैल साहब भी मेरे साथ-साथ अब सायकिल की यात्रा करने लगे हैं। कारण, उनकी तोंद काफी बाहर आ गयी है जो उनके शारीरिक स्थापत्य के सौंदर्य को नष्ट कर रही है। सायकिल चलाने से उन्हें पूरी आशा है कि वह कम हो जाएगी अौर वे अपना स्वाभाविक रूप-सौन्दर्य फिर पा सकेंगे। एक दिन एक गर्भवती महिला सायकिल चलाते हुए आ रही थी। मैंने उनसे कहा आपका पेट अौर उस महिला का पेट लगभग बराबर ही है। वे मुस्कराए अौर बोले कि उसकी तोंद तो कुछ महीनों में कम हो जाएगी मेरी पता नहीं कब होगी। मैंने कहा कि कोशिश करते रहिए। रास्ते में एक बीहड़ चढ़ाई पड़ती है। मैं तो बिना सायकिल से उतरे उसे पार कर लेता हूँ। सुहैल साहब सायकिल से उतरकर ही चढ़ाई पार कर पाते हैं। मैंने उनसे कहा जिस दिन आप बिना सायकिल से उतरे इस चढ़ाई को पार कर लेंगे उस दिन मैं अपने सपनों के बच्चे की माँ को आपका पता दे दूँगा। उस दिन से वे लगातार कोशिश कर रहे हैं। इंच दर इंच फुट दर फुट उनकी सायकिल आगे चढ़ती जा रही है। सायकिल आगे चढ़ते जाने में एक सपना छिपा है।हर कोशिश एक सपना ही तो है। 

गोदानमें होरी के कई सपने पूरे हो गए कई अधूरे रह गए थे। मरते दम तक उसकी भी कोशिश जारी थी एक गाय को पाने की। दुनिया के हर आदमी में एक होरी छिपा है। उसके कुछ सपने पूरे हो जाते हैं, कई अधूरे । पूरे-अधूरे सपनों के बीच ही कहीं जीवन की सार्थकता है, क्या यही मोक्ष है? या यूँ कहें कि हर मोक्ष अधूरा है।

फ़िल्मकार हयाअो मियाज़ाकी: जापान-भारत के सांस्कृतिक सेतु

 राम प्रकाश द्विवेदी
भारत अौर जापान के सांस्कृतिक संबंधों में एक अन्तर्वर्ती धारा का प्रवाह दिखाई देता है। जो बहुधा बाह्य, स्थूल अौर सतह पर परिलक्षित नहीं होता। इस सांस्कृतिक संबंध को पहचानने का सूत्र, यदि केवल एक पद में कहा जाय, है प्राच्य भावबोध। प्राच्य भावबोध को अनेक विद्वानों मनीषियों ने पश्चिमी भावबोध से अलग किया है जो कि अब साफ तौर पर पहचाना जा सकता है। भारत-जापान के सांस्कृतिक संबंधों को जानने-समझने के लिए इस पत्र में मैंने प्राच्य भावबोध को एक केन्द्रीभूत तत्व के रूप में ग्रहण किया है जिसे जापान के विश्व प्रसिद्ध फ़िल्मकार हयाअो मियाज़ाकी की फ़िल्मों के जरिए परिभाषित करने का भी प्रयत्न  
किया गया है। 
हयाअो मियाज़ाकी की ख्याति का आधार उनकी एनीमेशन फ़िल्में हैं। वैसे वे एक सफल मांगा लेखक अौर बहुआयामी ग्राफिक डिज़ाइनर भी हैं। भारत में रहते हुए मेरा यह सामान्य अनुभव था कि एनिमेशन फ़िल्मों को बच्चों के खाते में डाल दिया जाता है अौर सांस्कृतिक विमर्श जैसी गंभीरता को पहचानने का उद्यम इनमें न के बराबर हुआ है। अपनी इसी पृष्ठभूमि के चलते शुरू में मियाज़ाकी की फ़िल्मों से मेरा तादाम्य या कहें कि साधारणीकरण संभव नहीं हो पाया। बाद में अपने विश्विद्यालय की डिजीटल लायब्रेरी का उपयोग कर मैंने उनकी लगभग सभी महत्वपूर्ण फ़िल्में देखी अौर पाया कि वे कैसे बुद्ध अौर गाँधी के करीब खड़े हैं। उनकी फ़िल्मों में भारतीय मनीषा का चिंतन बोलता है। भारतीय संस्कृति के चेहरे को पहचानने के लिए बुद्ध, गाँधी अौर अंबेडकर मुझे एक समग्र विज़न देते हैं। हयाअो मियाज़ाकी की फ़िल्मों में इन विचारकों की अनुगूँज बहुत स्पष्ट है। बुद्ध की शांति अौर अहिंसा, गाँधी का प्रकृति अौर पर्यावरण प्रेम एवं अंबेडकर का शोषितों का सशक्तिकरण मियाज़ाकी की फ़िल्मों के केन्द्रीय स्वर हैं। यह आश्चर्य में डालने वाली समानता क्योंकर है, यह एक स्वतंत्र अध्ययन का विषय है।
 मियाज़ाकी की फ़िल्मों की सूची बहुत लंबी है। तीस से भी अधिक महत्वपूर्ण फिल्में बनाकर उन्होंने जापान समेत पूरी दुनिया जो यश प्राप्ति की वह साधारणत: दुर्लभ है। यहाँ मैं उनकी कुछेक फ़िल्मों का ही उल्लेख करूँगा। ये हैं-
-तूफान-घाटी की राजकुमारी:नाऊसिका(Nausicaa of The Valley of the Wind-1984)
-किकी की डाक सेवा (Kiki’s Delivery Service-1989)
-राजकुमारी मोनोनोके (Princes Mononoke-1992) 
-चिहिरो की कहानी (Spirited Away-2001)
-मेरा पड़ोसी तोतोरो (My Neighbour Totoro-1998) 
-हवा की उड़ान (The Wind Rises-2013)
मोटेतौर पर ये उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण अौर ख्यातिलब्ध फिल्में हैं जो उनकी सोच का भी प्रतिनिधित्व करती हैं। इन्हीं फ़िल्मों में जापान अौर भारत की सांस्कृतिक समानता के सशक्त दर्शन भी होते हैं। यहाँ यह देखना समीचीन होगा कि मियाज़ाकी की फ़िल्मों की विशेषताएँ क्या हैं। इन्हें निम्न रूपों में पहचाना जा सकता है- 
  1. प्रकृति अौर तकनीक के साथ मानव का संबंध
  2. नारीत्व
  3. शांतिवादी नैतिकता को बनाए रखने की मुश्किलें
  4. खलनायक की अनुपस्थिति या उसका सवाल
  5. बालपन का सघन चित्रण
  6. हवाई यंत्रों के प्रति आकर्षण
इनमें से खलनायक की अनुपस्थिति की बात छोड़ दें तो बाकी सभी विशेषताएँ भारतीय रचना विधान का अंग रही हैं। पर, हम ऐसा नहीं कह सकते कि मियाज़ाकी की फिल्मों में खलनायक नहीं है। वह शायद साफ-साफ दिखाई नहीं देता या उसे समझने के लिए हमें थोड़ी अधिक कोशिश करनी पड़ती है। मियाज़ाकी के अधिकांश फ़िल्में नायिका प्रधान है। इनमें सशक्त अौरतों अौर युवतियों का जीवन-संघर्ष, स्वप्न, चाहत, लालसा अौर प्रयत्न स्पष्ट तौर पर पहचाना जा सकता है। खलनायक वे समस्त स्थितियाँ हैं जो नायिकाअों के लिए संघर्ष के हालात पैदा करती हैं। इसलिए खलनायक का स्वरूप धुँधला अौर अस्पष्ट है। वह अदृश्य होकर जटिल हो गया है।
मियाज़ाकी अपनी फ़िल्मों में तरह-तरह के जीव-जगत उपस्थित करते हैं। विषैले वन्य-प्रदेशों से लेकर, अनोखी घाटियाँ, भुतहा रास्ते अौर जादू भरी राहों का निर्माण कर वे सर्वथा एक नए रहस्यमय लोक की रचना करते हैं। उनकी सभी महत्वपूर्ण फिल्मों में धरती, आकाश, जल, वनस्पतियाँ, अद्भुत जीव अौर मानव गतिविधियाँ एक साथ सक्रिय हो उठती हैं। ये मानव गतिविधियाँ अनेक तकनीकी वस्तुअों से समृद्ध है। गाँधी के बारे में माना जाता था कि वे सूक्ष्म तकनीकों के आग्रही व्यक्ति थे। जैसे, चरखा अौर तकली उनके प्रिय  अौजार थे। हयाअो मियाज़ाकी लघु अौर दीर्घ अौजारों में फर्क नहीं करते थे। उनके लिए झाड़ू अौर हवाई जहाज़ लगभग एक जैसा महत्व रखते हैं। कभी-कभी तो दोनों तदाकार भी हो जाते हैं। लेकिन तकनीक अौर मनुष्य के सह-संबंधों की व्याख्या दोनों में मौजूद है। ‘किकी की डाक सेवा’ में झाड़ू का हवाई यंत्र के रूप में इस्तेमाल हुआ है। भारतीय जनजीवन में आधुनिक तकनीकों के प्रति उदासीनता का भाव देखा जा सकता है जबकि जापानी समाज तकनीक को आकर्षण भरी निगाहों से देखता है। यह आकर्षण हयाअो मियाज़ाकी की फ़िल्मों में एक सूत्र की तरह विद्यमान है। अपने परिवेश का निर्माण करते हुए फ़िल्मकार मियाज़ाकी मनुष्य को ब्रह्मांडीय परिघटना का हिस्सा बना देते हैं। मनुष्य अपने कुछ अौजारों के साथ इस लोक में खड़ा है अौर अपने जीने का रास्ता ढूढ़ रहा है। अौजार ही उसे ताकतवर बना देते हैं अौर फिर वह अहंकार के दर्प में चूर प्रकृति विजय का अभियान छेड़ देता है अौर वह भूल जाता है कि वह स्वयं भी तो प्रकृति का ही हिस्सा है। प्रकृति को मारकर वह खुद भी मर ही जाएगा। अपनी फ़िल्मों में वे मनुष्य के अहंकारी भाव को तोड़ने के लिए प्रकृति की विराट शक्ति का प्रदर्शन करते हैं अौर मानव तथा प्रकृति के सह-अस्तित्व का सार्थक संदेश देते हैं। तूफान-घाटी की राजकुमारी नाऊसिका महाविनाश के बाद अपने पिता के साथ रहती है। उसके राज्य के चारों
अोर विषैले वन्य-प्रदेश अौर विध्वंसक सागर लहराते है जिनमें दैत्याकार अोम जन्तुअों का बोलबाला है। नाऊसिका इनके रहस्यों को जानना चाहती है जिससे एक स्थायी शांति कायम की जा सके। दूसरे तोमेकिअन लोग विषैले जंगलों अौर अोम जंतुअों को नष्ट करके सबकी सुरक्षा निश्चित करना चाहते हैं। पर, नाऊसिका इसमें महाविनाश की आशंका देखती है अौर विरोध करने पर बंदी बना ली जाती है। बाद में अपनी सूझ-बूझ से वह छूट तो जाती है पर अपने को विषैले जंगलों में घिरा पाती है। जब तोमोकिअन लोग युद्ध में बेबस हो महाविनाश की अोर बढ़ते है तो नाऊसिका शांतिदूत बन दोनों पक्षों के भय को खत्म कर उन्हें सह-अस्तित्व में रहने का उद्यम रचती है। सागर, जंगल, धरती अौर मनुष्य के अापसी संबंधों की अनूठी व्याख्या इस फ़िल्म में हैं जो भारतीय मनीषा की चिन्ताधारा का भी मुख्य केन्द्र रही है।
तकनीक के मनुष्य के साथ संबंधों को लेकर पूरी दुनिया के विद्वानों ने समय-समय पर अपनी राय प्रस्तुत की है। यह विमर्श आज भी जारी है। भारत का प्राचीन काल वैज्ञानिक व तकनीकी रूप से समृद्ध था। मध्यकाल में दार्शनिक उभार के चलते हम कमोवेश तकनीकी निरपेक्षता की अोर चले गए। अौर अब पश्विमी तकनीकों पर अाश्रित होकर अपने विकास की संभावनाएँ तलाश रहे हैं। जापान ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अपने नवनिर्माण के दौर में अाधुनिक तकनीक अौर विज्ञान को हृदय से अपनाया। शायद यही वह समय था जो मियाज़ाकी को मथता है अौर वे इससे थोड़ा घबराए हुए से प्रतीत होते हैं। यह घबराहट उनकी कई फ़िल्मों में परिलक्षित होती है। इसलिए उनकी फ़िल्मों में तकनीक का आकर्षण अौर भय दोनों उपस्थित हो जाता है। एक-दूसरे के सामने, एक-दूसरे से संवाद रचता हुआ। मनुष्य को तकनीक चाहिए भी अौर वही उसके लिए सबसे बड़ा संकट भी पैदा करती है। मेरा अनुमान है कि बचपन में देखे-सुने आणविक युद्ध की छाया मियाज़ाकी का हमेशा पीछा करती रही है। यह उनके लिए एक दुविधा भरा समय है जिसमें तकनीक, विनाश अौर राहत एक साथ लेकर आती है। तकनीक हमारे जीवन को सुगम बनाती है, उसमें व्यवस्था पैदा करती है। संविधान भी सामाजिक व्यवस्था रचने का उपक्रम करता है। तकनीक भौतिक रूप से प्रत्यक्ष होती है संिवधान अभौतिक होकर भी हमारा नियमन करता है। तकनीक बाह्य प्रकृति का नियमन करती है तो संविधान भीतरी प्रकृति के नियमन का उपक्रम है। एक प्रकृति बाहर है अौर दूसरी हमारे भीतर भी जिसमें सपनों के ज्वालामुखी धधकते हैं अौर इच्छाअों के तूफान उठ खड़े होते हैं। दोनों नियंत्रित करने की जरूरत होती है। जापानी समाज ने बहुत पहले तकनीक की महत्ता समझी थी। मियाज़ाकी का तकनीकी आकर्षण अौर बाबा साहब अंबेडकर का संविधान निर्माण दोनों सामाजिक नियमन के दो पहलू उभारते हैं जो कहीं जाकर एक ही राह पर आकर मिल जाते हैं भले ही एक में बाह्य प्रकृति अौर दूसरे में भीतरी प्रकृति को साधने पर अधिक बल हो। जैसे बाबा साहब ने दलितों के सशक्तिकरण का अभियान छेड़ा वैसे ही मियाज़ाकी अपनी फ़िल्मों में स्त्री की ताकत, गुणवत्ता, बौद्धिकता अौर संघर्षवाहिता का पूरे प्रभाव के साथ चित्रण करते हैं।
    इसी क्रम में ‘राजकुमारी मोनोनोके’का उल्लेख किया जा सकता है जिसका फलक बहुत व्यापक है। वह मिथकीय युग से आरंभ होकर आधुनिक युग तक की यात्रा जैसा अाह्लाद देती है। अनोखे देवी-देवताअों, राजकुमार-राजकुमारियों, दैत्यों, सघन वन प्रांतर, महाकाय पहाड़ों, वनैले रहस्यमयी जानवरों के सहारे मियाज़ाकी एक जादुई संसार बसा देते हैं। निर्जीव अौर सजीव चीजें एक दूसरे की पूरक बनकर उभरने लगती हैं। ‘पंचतंत्र’ अौर ‘विक्रम-बेताल’ का सम्मिश्रण-सा परिवेश उभरता है इस फ़िल्म में। फ़िल्मी तकनीक का उपयोग कर मियाज़ाकी अपने परिवेश को पर्याप्त डायनेमिक अौर प्रभावोत्पादक बना देते हैं जो कहानियों में शिथिल-सा दिखाई देता है। पाश्चात्य संस्कृतियों में तकनीक का डॉमिनेंश या वर्चस्व दीखता है जबकि प्राच्य संस्कृति तकनीक को मानव का अनुगामी बनाती है। इसलिए हॉलीवुड फिल्मों से हयाअो मियाज़ाकी की फ़िल्में बिल्कुल अलहदा हैं। ‘स्टार वार्स’ ‘टर्मिनेटर’, ‘किंग कांग’, ‘जुरासिक पार्क’, ‘एनाकोंडा’ अौर ‘स्पाइडर मैन’ जैसी फ़िल्मों अौर मियाज़ाकी की फ़िल्मों के विधायी तत्व-तकनीकी उपकरण, प्राकृतिक परिवेश, अनूठे जीवजंतु—भले ही एक जैसे हों पर उनके साथ किया गया ट्रीटमेंट बिल्कुल जुदा है। इसके चलते ही वे भारतीय संस्कृति अौर भावबोध के अधिक करीब दिखाई देते हैं। भारतीय परंपरा में ध्वंस अौर निर्माण के मिथक भरे पड़े हैं। जिनमें जलप्लावन अौर देव सभ्याता के विनाश की कहानी पौराणिक ग्रंथों से लेकर जय शंकर प्रसाद की रचना ‘कामायनी’ तक की केंद्रीय विषय-वस्तु है। ‘राजकुमारी मोनोनोके’ का प्रारंभ भी विध्वंस की आशंकाअों अौर आहटों के बीच होता है। राजकुमार युवक आशिताका अौर गाँव के एक बुजुर्ग को सुदूर सघन जंगल में कुछ अनहोनी सी घटित होती प्रतीत होती है। वे इसका जायजा लेने जब गाँव के वाच-टावर पर चढ़ते हैं पलक झपकते ही वन से निकला दैत्य उस टावर को तोड़ देता है। आशिताका किसी तरह एक पेड़ का सहारा लेकर अपनी जान बचाता है अौर देखता है कि दैत्य गाँव को विध्वंस करने को बढ़ा जा रहा है। अपने तीर कमान से वह दैत्य का बध कर देता है पर उसका हाथ जख्मी हो जाता है। बाद में बुजुर्गों की पंचायत अपने अनुभव से जान पाती है कि यह दैत्य कभी देव था। जो गुस्से अौर नफ़रत के अतिरेक के कारण दानव बन गया था। उसके अभिशाप के चलते आशिताका का घाव कभी नहीं भरेगा अौर अंतत: वह मर जाएगा अौर गाँव का विनाश भी निश्चित है। पंचायत यह फैसला करती है कि आशिताका यह पता लगाने के लिए पश्चिम देश की यात्रा पर चला जाय कि देव का दानव बनने का क्या कारण था। इससे ही मानवता का कल्याण हो सकता है। यह यात्रा ही फ़िल्म के केन्द्र में है जहाँ आशिताका नागो भगवान के बारे में जान पाता है जो वन-देवता था अौर बाद में मानव निर्मित लोहे की गेंद के प्रहार के चलते वही दैत्य बन गया था जिसका घाव लिए अपने याकूल पर आशिताका अभी भी घूम रहा है। इसी यात्रा में उसे लालची जिगो, लौह नगर ततारा की मलिका लेडी इबोशी, वहाँ जीवन यापन करती पुरानी वेश्याएँ अौर कोढ़ी, अजीबो-गरीब कोदामा, जंगल में रमण करती आत्माएँ, प्रचुर जल स्रोत अौर अनंत वनस्पतियाँ, भेड़िअों की देवी मोरो तथा उसके द्वारा पालित-पोषित राजकुमारी मोनोनोके, जंगल के अधिष्ठाता देव ‘विशाल रात्रिचारी’ (Nightwalker) आदि मिलते हैं। आशिताका की यह पश्चिम देश की यात्रा अौर उससे जुड़ी घटनाएँ-घृणा, प्रेम, लालच, प्रकृति अौर मनुष्य के संबंध, अौद्योगीकरण अौर उसके दुष्परिणामों का उजागर करने का काम करती है। अंतत: मियाज़ाकी यह स्थापित करते हैं कि मानव-सभ्यता अौर प्रकृति-पशु-परिंदे एक-दूसरे के साथ सह-अस्तित्व में रह सकते हैं। नफ़रत को मिटाना कितना मुश्किल है यह इस फ़िल्म में बखूबी दर्शाया गया है। यह फ़िल्म घृणा पर विजय प्राप्ति का अभियान बन जाती है। वास्तविक जगत में नफ़रत को जीतने का ऐसा उपक्रम, पूरी दुनिया में, महात्मा गाँधी ने अलावा शायद ही किसी अौर ने किया है। जब पश्चिमी सभ्यता अौद्योगिकीकरण के रथ पर आरूढ़ प्रकृति का दोहन करने में जुटी थी तो गाँधी ही ऐसे शख्स थे जिन्होंने पूँजीवाद, मशीनीकरण अौर उद्योगीकरण का सार्थक क्रिटीक उपस्थित किया।
‘चिहिरो की कहानी’ एक दस साल छोटी बच्ची की कहानी है। जो अपने माता-पिता के साथ नए घर में प्रवेश करने जा रही है। पर राह भटकने के कारण वे बिल्कुल बीहड़-सी जगह में पहुँच जाते हैं। फिर उसके माता-पिता आकर्षण अौर लालच के फेर में आकर वहाँ पहुँच जाते हैं जहाँ युबाबा की पराभौतिक शक्तियाँ काम करती हैं। इसके फलस्वरूप उसके माता-पिता सुअर बन जाते हैं। युबाबा की यह जादू भरी दुनिया अनेक रहस्यमयी घटनाअों से पटी पड़ी है। युबाबा का सिर पक्षी अौर धड़ मनुष्य जैसा है। वहाँ मानव का प्रवेश वर्जित है। इस दुनिया में उड़ंतू ड्रैगन, तरह-तरह के जानवर, जो मनुष्य के ही रूपांतरित रूप हैं, मिलते हैं। पानी पर दौड़ती रेलगाड़ी है। इस रहस्यमय दुनिया में चिहिरो किसी तरह रहने की अनुपति पा जाती है जिससे वह अपने माता-पिता, जो अब शूकर बन चुके है, को पुन: मानव रूप में लाने का संघर्ष कर सके। मियाज़ाकी इस फ़िल्म में एक मायावी, रहस्यमयी, भुतहा लोक की रचना करते हैं जिसमें छोटी-बालिका चिहिरो का संघर्ष अौर सूझबूझ बखूबी चित्रित हैं। भारतीय नैतिक कथाअों की तरह मियाज़ाकी अपनी इस फ़िल्म में यह संदेश प्रस्तावित करते हैं कि ‘लालच अौर आकर्षण’ मनुष्य को जानवर बना देते हैं।
‘मेरा पड़ोसी तोतोरो’ एक प्रोफेसर तत्सुअो अौर उनकी दो बेटियों-दस वर्षीय सत्सुकी अौर चार वर्षीय मेइ की कहानी है जो अपने दूसरे घर में रहने जा रहे हैं। जहाँ के एक अस्पताल में बेटियों की माँ स्वास्थ्य लाभ कर रही है। जब बेटियाँ इस घर में पहुँचती हैं तो उनका सूक्ष्म कजली आत्माअों से साक्षात्कार होता है। वे भय अौर आश्चर्य से भर जाती हैं। उनके पड़ोस में रहने वाला केंता उनको यह बताकर अौर डरा देता है कि इस घर में भूतों ने डेरा डाल रखा है। केंता की दादी यह सब बताने के लिए उसे झिड़क देती है। एक दिन छोटी मेइ को कपूर के पेड़ के नीचे  सकरा रास्ता  दिखाई देता है जिसमें वह कौतूहलवश प्रवेश कर जाती है जहाँ उसका साक्षात्कार तोतोरो से होता है जो इन सूक्षम आत्माअों की सरगना है। ये आत्माएँ मनुष्यों को घर में पाकर नए खाली घर की तलाश में बाहर निकल जाती हैं। बाद में दोनों बच्चियों की सहृदयता तोतोरो को प्रसन्न कर देती है अौर परिणाम स्वरूप उनकी माँ स्वस्थ हो घर लौट अाती है।
‘हवा की उड़ान’ एक आत्मकथात्मक फ़िल्म है जिसने वर्तमान समय में एक विवाद को भी जन्म दिया। इसकी कहानी एक जंगी जहाज बनाने वाले इंजीनियर जिरो अौर क्षय रोगग्रस्त उसकी प्रेयसी नहोको की कहानी। जिरो को हवाई जहाजों से बड़ा लगाव था इसलिए वह पायलेट बनने का इरादा छोड़ उनके निर्माण से जुड़ जाता है। विफलताअों के बाद जब वह एक अच्छा जहाज बनाता है तो उसका इस्तेमाल द्वितीय युद्ध में किया गया जिससे उसे बहुत आघात लगा। मियाज़ाकी इस फ़िल्म में जापान के सैन्यीकरण की दिशा में बढ़ने के खतरों के प्रति आगाह करते नज़र आते हैं। फ़िल्म ने अपने इसी संदेश के चलते राजनीतिक विवादों को भी जन्म दिया है।
हयाअो मियाज़ाकी अपनी फ़िल्मों में शहर को गाँव, जीवित अात्माअों को मृत आत्माअों, तथ्य को कल्पना, जादू को यथार्थ, निराकारता को सकार, आसमान को धरती, जंगल को जमीन, जानवर को मनुष्य, यंत्र को तंत्र, इतिहास को स्मृति अौर लघुता को विराटता से जोड़ते हैं। इसलिए इसलिए जंगल में भेड़ियों के बीच पली राजकुमारी, कुमार आशिताका से प्रेम करते हुए भी करते हुए भी वन में ही रहने का निश्चय करती है। चिहिरो भुतहा लोक से अपने माता-पिता को वापस ला पाती है। नाऊसिका एक शांतिदूत बन मानव सभ्यता अौर प्राकृतिक शक्तियों के बीच स्थाई शांति की तलाश करती है। तोतोरो एक मददगार अौर मानवीय आत्मा के रूप में हमारे सामने आता है अौर जिरो अपने आकर्षक आविष्कार के बावजूद पश्चाताप से घिर जाता है। मनुष्य अपनी ही प्रजाति के खिलाफ हो जाता है, उसी का संघारक बन जाता है। मियाज़ाकी की फ़िल्मों मनुष्य की दोहरी तानाशाही पर चोट है। एक जिसमें वह दूसरे मानव समूहों के विरूद्ध युद्ध रचता है अौर दूसरा जिसमें वह समूची प्रकृति को हस्तगत करना चाहता है। उनकी फ़िल्में प्रकृति अौर अन्य प्राणियों पर मानव-तानाशाही का प्रतिवाद करती हैं।

भारत में राजनीति अौर धर्मनीति साथ-साथ चलती हैं। बुद्ध राज-कुमार होकर सन्यासी बन जाते है, गाँधी राजनेता होकर वैष्णव भजन गाते हैं, अम्बेडकर आधुनिक भारत का संविधान रचते हुए भी बौद्ध धर्म में दीक्षा लेते हैं। हयाअो मियाज़ाकी भी राजनीति अौर कलानीति को एक साथ लेकर चलते हैं। जब उन्हें अमेरिका में अॉस्कर समारोह में सम्मिलित होने के लिए बुलाया गया तो वहाँ न जा पाने के बारे में उनका जवाब था-‘I didn’t want to visit a country that was bombing Iraq’.आखिरकार कलाएँ, धर्म, दर्शन तथा राजनीति समाज को सँवारने के लिए ही तो हैं अौर मियाज़ाकी अपनी फ़िल्मों के जरिए यही वैश्विक संदेश रचते हैं।

जापान मे हिन्दी शिक्षण: सोशल मीडिया की भूमिका

जापान मे हिन्दी शिक्षण: सोशल मीडिया की भूमिका
जापान में निवसित होने के लिए अनेक जरूरी चीजों के बारे में वहाँ की सरकार कई प्रकार के परामर्श देती है। इन परामर्शों में से एक फोन का होना भी जरूरी बताया गया है। अक्सर छात्र अौर अन्य लोग स्मार्टफोन के साथ सभी जगहों पर दिखाई देते हैं। फोन के जरिए बहुत सी सूचनाअों तक पहुँच सुनिश्चित हो जाती है। युवा लोगों में सोशल मीडिया सबसे लोकप्रिय है। इसलिए फोन की घंटी कभी नहीं बजती। ऐसा करना असभ्यता की श्रेणी में आता है। केवल सोशल मीडिया के द्वारा संदेशों अौर सूचनाअों का आदान-प्रदान करना उचित अौर शालीन तरीका है। जापान निजता को एक विशेष अधिकार के रूप में बड़ा अधिक महत्व देता है। इसलिए सीधे-सीधे बात करने में लोग संकोच करते हैं। ई-मेल या सोशल मीडिया के द्वारा बातचीत करना अधिक पसंद किया जाता है। शिक्षा सामाजिक व्यवहार का ही एक अंग है। जापानी छात्र देश की व्यवस्थित तकनीक का इस्तेमाल अपने शिक्षण के लिए करते हैं जिसमें निजता के संरक्षण का भाव हमेशा बना रहता है।  पूरी दुनिया में लगभग दो सौ सोशल-माध्यम विभिन्न जरूरतोंके अनुसार सक्रिय हैं। जिनमें शैली अौर तकनीक का व्यापक वैविध्य देखने में आता है। ऐसा भी देखा गया है कि विभिन्न देशों के अपनी आवश्यकतानुसार विभिन्न सोशल-माध्यमों को अपनाते हैं। शिक्षण में मुख्यत: चार प्रकार के सोशल मीडिया का उपयोग अधिक होता है। ट्विटर जैसे शब्द-सीमा से बँधे माध्यम, फेसबुक जिनमें शब्द, चित्र अौर वीडियो सभी का इस्तेमाल संभव है तथा यू-ट्यूब जैसे विशुद्ध वीडियो अाधारित माध्यम एवं साउंड-क्लाउड जैसे पूरी तरह ध्वनि आधारित माध्यम जापान में भाषा शिक्षण के कारगर अौजार बन गए हैं। इनके अतिरिक्त ब्लॉग, गूगल प्लस, इंस्टाग्राम, पिंटरेस्ट अौर अन्य सोशल माध्यमों का उपयोग किया जाता है। भाषा अौर संस्कृति अविभाज्य हैं इसलिए संस्कृति के बोध के साथ ही भाषा-शिक्षण का महत्व स्थापित होता है।  सोशल मीडिया समसामयिक संस्कृति अौर भाषा-प्रयोग का जीवंत मंच है। संस्कृति के विभिन्न घटकों का सोशल मीडिया के जरिए साक्षात्कार कराना सहज-सुगम अौर किफायती है। इसलिए जापान में सोशल-मीडिया का उपयोग कर हिन्दी-शिक्षण करना समय की अपरिहार्यता है।
भाषा शिक्षण के लिए चार चरण महत्वपूर्ण हैं, जिनमें पढ़ने, लिखने, बोलने अौर सुनने-समझने को सम्मिलित किया जा सकता है। तो सबसे पहले बोलने-सुनने के बारे में बात करना ठीक होगा।जापानी भाषा में हिन्दी की तुलना मेँ बहुत कम ध्वनियाँ हैं। इसलिए छात्र बहुत से हिन्दी वर्णों को ठीक से उच्चरित नहीं कर सकते।खास तौर पर ‘र’ अौर ‘ल’ की ध्वनियों को बोलने-सुनने में उन्हें अन्तर स्पष्ट नहीं होता। इसीप्रकार अन्य वर्ण भी हैं जिनके उच्चारण में जापानी छात्रों को मुश्किल का सामना करना पड़ता है।एक अध्यापक समुचित उच्चारण के लिए खुद बोलकर अौर छात्रों को उसे दुहराने को कहकर इसका अभ्यास करवा सकता है।लेकिन, एेसा करना हमेशा रोचक नहीं होता अौर यह थोड़ा उबाऊ भी हो सकता है। इस परिस्थिति में जब यू-ट्यूब का कोई वीडियो दिखाया जाता है तो छात्र उसे चाव से देखते हैं अौर हिन्दी ध्वनियों को सुनने-समझने का अभ्यास भी करते हैं। इससे दो तरह के परिणाम हासिल होते हैं। पहला यह कि विद्यार्थी सुनने-समझने की चुनौती के साथ वीडियो देखना शुरू करता है। सामान्यत: यह वीडियो भारतीय समाज अौर संस्कृति को भी अन्तर्गुंफित किए हुए होता है इसलिए वे न केवल भाषा का अभ्यास कर पाते हैं अपितु संस्कृति के भी बेहद महत्वपूर्ण पहलुअों से परिचित होते चलते हैं।
eg-youtube video Documentary- koi to Thaam lo…The shrinking Ganges. or mptourism
इस वीडियो में गंगा के विषय में जानकारी देते हुए मिथक, भूगोल, पर्यावरण जैसे मुद्दों का अनूठा संयोजन किया गया है।यह वृतचित्र सहज प्रवाह में हिन्दी का प्रयोग करता है अौर अंग्रेजी उपशीर्षकों का भी इस्तेमाल भी किया गया है। एेसे अनेक सरकारी, गैर-सरकारी, व्यावसायिक अौर गैर-व्यावसायिक वीडियो यू-ट्यूब पर हिन्दी में उपलब्ध हैं। इनका कक्षाअों में उपयोग कर हिन्दी-शिक्षण को सुगम बनाया जाता है।
हिन्दी शिक्षण करने वाले लगभग हर जापानी विश्वविद्यालय में कक्षाअों के शिक्षण के साथ-साथ अन्य गतिविधियाँ भी संचालित की जाती हैं। जिनमें भारतीय भोजन पकाना अौर नाट्य-प्रस्तुतियाँ एवं भारत की शैक्षिक-यात्रा आदि शामिल हैं।इस अकादमिक सत्र से एक दिन छात्रों के लिए सक्रिय-शिक्षण का निश्चित किया गया है।भारत अौर जापान में खान-पान की शैली में गहरा अंतर है। भारतीय व्यंजनों के बारे में जापानी छात्रों को अधिक जानकारी नहीं होती।उन्हें इस बात पर आश्चर्य होता है कि भारत के लोग केवल शाकाहार करके सारे प्रकार के पोषक तत्व प्राप्त कर सकते हैं। भोजन वैविध्य की भी जानकारी उनके पास बहुत सीमित होती है। उदाहरण के लिए हर प्रकार के सालन को वे ‘करी’ के रूप में ही पहचानते हैं।नान ज्यादा लोकप्रिय है परंतु तरह-तरह की रोटियों अौर चपातियों अौर पूरी, पराँठा के बारे में सुनकर उनको अाश्चर्य ही होता है।जैसा कि आप सब जानते ही हैं कि दक्षिण अौर उत्तर भारतीय भोजन भी वैविध्य लिए हुए है, इसलिए इन सबकी पकाने की विधि अौर रूप-रंग के बारे में पाठ्य-पुस्तकें सीमित जानकारी ही दे सकती है। वे कितनी ही कुशलता से क्यों न लिखी गयी हों पर वे श्रव्य-दृश्य-माध्यमों का स्थान नहीं ले सकती। ऐसी परिस्थिति में यू-ट्यूब पर प्रेषित अनेक निजी अौर प्रोफेशनल वीडियो बड़े कारगर सिद्ध होते हैं अौर छात्र इनका आशय सुगमता से ग्रहण कर लेते हैं। छात्रों द्वारा बनाया पकवान विश्वविद्यालय-महोत्सव के समय आगंतुक लोगों को खिलाया जाता है अौर स्वाभावत: वे अपना फीडबैक भी देते हैं। इसके चलते भारतीय भोजन विश्वविद्यालय से निकल कर जापानी आमजन की पहुँच में भी आता है। मैंने पाया है कि जो छात्र इस भोजन-निर्माण की प्रक्रिया में सम्मिलित होते हैं वे बाद में अपने घर-परिवार के साथ भी भारतीय भोजन बनाते हैं अौर बार-बार यू-ट्यूब जैसे वीडियो का सहारा लेते हैं। कहना न होगा कि इससे खान-पान से संबंधित उनकी हिन्दी शब्दावली समृद्ध होती चलती है।
ध्यान देना चाहिए कि भाषा शिक्षण के लिए अब व्याकरण अौर अन्य बातों के अतिरिक्त दृश्यता का महत्व बढ़ चला है।भाषा-शिक्षण में दृश्य-भाषा के योगदान को समझना अनिवार्य हो चला है। वैसे तो फिल्में भी दृश्यता का उपयोग करते हुए हिन्दी-शिक्षण में हमेशा मददगार रहीं हैं।परंतु यू-ट्यूब जैसी सोशल मीडिया साइट्स ‘सामान्यता’ अौर ‘दैनिकपन’ से भरपूर होती हैं। इसलिए निश्चय ही इनकी भाषा वास्तविकता के अधिक करीब होती है। इन पर प्रेषित वीडियो को देखकर छात्र आजकल की बोलचाल की भाषा के अधिक करीब आ पाते हैं। यहाँ वह आजादी भी मिलती है कि वे अपने मनचाहे विषय का वीडियो देख सकें। वैयक्तिक चयन की एेसी आजादी फिल्मों समेत दूसरे माध्यम नहीं दे सकते अौर आम जन जीवन की संस्कृति का जीवंत अौर गतिशील दृश्य देख पाना अन्यत्र मुश्किल है।
जापान के कई विश्वविद्यालयों में हिन्दी शिक्षण को केवल प्राध्यापकीय व्याख्यानों तक सीमित नहीं रखा जाता। उनको अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों से संपृक्त किया गया है। इनमें से एक महत्वपूर्ण गतिविधि है-नाट्य-प्रस्तुति। अब एक निजी बात बताना चाहता हूँ। पिछले साल मेरे विश्वविद्यालय के छात्रों ने कालिदास के प्रसिद्ध नाटक ‘शकुंतला’ की प्रस्तुति की। नाटक में कण्व ऋषि के आश्रम का वर्णन था। छात्र ठीक से न तो ऋषि आर न आश्रम की संकल्पना समझ सकते थे। इनका ठीक-ठीक अभिप्राय समझा पाना बेहद  कठिन था।  ऐसी स्थिति में ऋषि की वेष-भूषा अौर जीवन-शैली को समझाने के लिए यू-ट्यूब वीडियो से बेहतर कोई माध्यम न हो सकता था। यह सिर्फ एक उदाहरण भर है। इस साल भी मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर आधारित नाट्य-प्रस्तुति होनी है जिसमें अनेक संकल्पनाएँ-मसलन हवेली, नवाब, तीतर अौर बटेर की लड़ाइअों की उपयोगिता अौर कथक-नृत्य की शैली-आदि के बारे में जानकारी देने के लिए सोशल-मीडिया का उपयोग किया जा रहा है। 
आइए अब एक दूसरे अौर लोकप्रिय माध्यम की बात करें। फेसबुक अपने चरित्र अौर व्यवहार में अनूठा माध्यम है। यह निजता अौर सामाजिक स्थितियों की अभिव्यक्ति के बेजोड़ अवसर उपलब्ध कराता है। इसमें शब्द, चित्र अौर चलित चित्रों का उपयोग कर अपने संदेश को संप्रेषित किया जा सकता है। बड़ी बात यह है कि भारत में इसके प्रयोक्ताअों की संख्या काफी अधिक है, शायद पूरी दुनिया में दूसरे स्थान पर। इन अभिव्यक्तियों को देखकर भारत के सामाजिक, वैचारिक, सांस्कृतिक अौर भौगोलिक वैविध्य का पता चलता है। ये अभिव्यक्तियाँ प्रचुर मात्रा में होती है अौर हिन्दी की विविध शैलियों के दर्शन भी यहाँ किए जा सकते हैं। हिन्दी की बोलियों में भी जब-तब लेखन देखने को मिलता है। अनेक समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, संस्थान अौर प्रसिद्ध हस्तियाँ अपने-अपने पृष्ठ उपलब्ध करवाकर इस मंच को प्रामाणिक सूचनाअों का माध्यम भी बनाती है। कुछ इसी तरह समान अभिरुचियों अौर सरोकारों से संबंधित निजी या सार्वजनिक समूहों का निर्माण भी फेसबुक संभव बनाता है। जिसमें सरोकार-विशेष से संबधित जानकारियाँ अौर सूचनाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं। इसप्रकार फेसबुक पर सामग्री संस्कृति अौर भाषा-शिक्षण का अन्यतम स्रोत बन जाती है। बहुधा प्रत्येक जापानी छात्र अपनी फेसबुक आईडी बनाता है। सक्रियता हर छात्र के स्वभाव पर निर्भर करती है। यह देखने में आता है कि वे इसके माध्यम से कुछेक हिन्दी पत्र-पत्रिकाअों के अपडेट देखते रहते हैं। हिन्दी समाचार चैनलों के पृष्ठों के जरिए वे बीस-तीस सेकेंड के समाचार देखकर उन्हें समझने की कोशिश करते हैं। न समझ आने पर कक्षाअों में उनकी चर्चा करते हैं। इस प्रकार वे अपनी हिन्दी को बहुआयामी बनाने की दिशा में सक्रिय होते हैं। क्योंकि फेसबुक एक साथ परिवार, मित्रों अौर सामाजिक हलचलों से जुड़ने का अवसर मुहैया कराता है इसलिए छात्रों को हिन्दी पढ़ने अौर भारत से संबंधित गतिविधियों को जानने के लिए अलग से समय नहीं निकालना पड़ता अौर ऐसा करना उन्हें बिल्कुल भी बोझ-सा नहीं मालूम पड़ता।
जैसाकि मैंने पहले ही आपको बताया है कि जापानी लोग संकोची स्वाभाव के होते हैं। छात्र भी बहुधा कक्षाअों में सवाल नहीं पूछते। ज्यादातर वे खुद उत्तर जानने की कोशिश करते हैं। इसलिए फेसबुक जैसे सोशल माध्यम उन्हें निजी तौर पर भाते हैं। जब उनमें थोड़ा आत्मविश्वास आ जाता है तब वे छोटी-छोटी पोस्ट हिन्दी में लिखना शुरू कर देते हैं। जरूरी नहीं कि उनका लिखा व्याकरण की दृष्टि से सही हो। तब दूसरे छात्र उस पर अपनी टिप्पणियाँ कर उसे दुरूस्त बनाने का काम करते हैं। भारत हम अपने आत्मविश्वास के प्रति आत्ममुग्ध-सा होते हैं जापानी स्वाभाव इसके बिल्कुल विपरीत है। वे अपने आत्मविश्वास पर हमेशा सशंकित रहते हैं। इसलिए त्रुटि सुधार को भी बहुत ही सकारात्मक नजरिए से देखते हैं। अौर दोबारा वैसी गलती न करने के प्रति चौकस हो जाते हैं। ऐसा भी देखने में आता है कि फेसबुक के माध्यम से वे भारतीय युवाअों अौर विद्यार्थियों के संपर्क में आते हैं अौर निजी संदेशों के द्वारा एक दूसरे से अधिक बात करते हैं। अक्सर उनकी कोशिश होती है कि वे बातचीत हिन्दी में करें अौर कुछेक छात्रों ने बताया कि भारतीय लोग थोड़ी देर में ही अंग्रेजी में प्रतिउत्तर देने लगते हैं। जापानी समाज भाषाई दृष्टि से स्वाधीन समाज है। वे जापानी भाषा को ही महत्वपूर्ण मानते हैं। भाषाअों को सीखना उनकी मजबूरी नहीं अपितु चाहत है। रूचि का परिणाम है। फेसबुक जैसा मंच उनकी इस रूचि को परिपूर्ण करने में अपनी सहज भूमिका निभाता है।
सोशल मीडिया हमारी जरूरतों अौर मनोस्थितियों के अनुसार कई रूपों में विकसित हुआ है। फेसबुक ऐसा माध्यम है जहाँ आपकी निजता को सुरक्षित रखना कठिन होता है। उस पर अपनी अाईडी बनाने की एक महत्वपूर्ण शर्त है कि आप एक वास्तविक व्यक्ति हों। आपका नाम भी वास्तविक होना चाहिए। शिकायत की स्थिति में फेसबुक अाप से अपनी पहचान सिद्ध करने को कह सकता है अौर विफल रहने पर अापके खाते का खात्मा भी कर सकता है।ट्विटर पर इसकी कोई जरूरत नहीं। वह आपको अपनी पहचान छिपाए रखने की आजादी देता है। दूसरी बड़ी बात यह है कि वहाँ वर्ण-सीमा है। अधिकतम एक सौ चालीस। इसलिए आपको जो भी बात कहनी है उसे संक्षेप में ही कहनी पड़ेगी। हालाँकि आप लिंक आदि बनाकर अपने पाठक को विस्तृत प्लेटफार्म पर ले जा सकते हैं। संक्षेपण एक सुभीता देता है तो एक चुनौती भी। कुछ वाक्य जो आपको लिखने हैं वे संप्रेषणीय होने चाहिए। अनेक छात्र अपनी मनोस्थितियों को हिन्दी में लिखने की कोशिश यहाँ करते हैं जिनमें धन्यवाद ज्ञापन, अभिवादन, नींद आ रही है, स्वादिष्ट खाने आदि की सूचना सरलता से देखी जा सकती है। कुछेक वरिष्ठ छात्र अपने साथियों की सहायता के लिए विभिन्न विषयों पर जानकारी देने का काम छोटी-छोटी ट्वीटों के जरिए देने लगते हैं। एक दिलचस्प वाकया है। हमारे विश्वविद्यालय के हिन्दी विद्वान प्रो० ताकेशि फुजिइ जी ने अपनी कक्षाअों में भारत के महापुरुषों के बारे में पढ़ाना शुरू किया। महात्मा गाँधी, सरदार बल्लभभाई पटेल, नेताजी सुभाष चंद्र बोस आदि के बारे में। एक वरिष्ठ छात्र ने भारतीय महापुरूषों के बारे में एक सीरीज़-सी ही शुरू कर दी। उसमें नेहरू, अाम्बेडकर, जय प्रकाश नारायण, लोहिया, वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अौर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत सबके बारे में जानकारिया आने लगी। हालाँकि वे पोस्ट जापानी भाषा में थीं परंतु भारतीय संस्कृति अौर उसके महापुरुषों से जुड़ी संक्षिप्त-सार्थक जानकारी से सभी विद्यार्थी लाभांवित हुए। 
ट्विटर पर भी ऐसे विकल्प उपलब्ध हैं जिनसे हिन्दी भाषा, साहित्य अौर समाज के बारे में जानकारियाँ हासिल की जा सकती हैं। अनेक संस्थान, व्यक्ति अौर समूह संक्षिप्त किंतु महत्पूर्ण सूचनाएँ ट्विटर के माध्यम से प्रेषित करते हैं। विदेशी छात्रों के लिए यह संक्षिप्त जानकारी सहज रूप से ग्राह्य होती हैं। अक्सर काम की सूचनाएँ विद्यार्थयों को यहाँ मिल जाती हैं। मसलन जब मैंने इस विश्व हिन्दी सम्मेलन की आधिकारिक ट्वीट को रिट्वीट किया तो बहुत से छात्र विश्व हिन्दी सम्मेलनों के इतिहास, उसकी परंपरा, महत्व एवं उपयोगिता को समझने की दिशा में अग्रसर हुए। इसके पूर्व अधिकांश विद्यार्थी इस तरह के आयोजन से परिचित नहीं थे। इस प्रकार ट्विटर जिज्ञासाअों को उत्प्रेरित करने का सार्थक माध्यम बन गया है। क्योंकि संक्षिप्तता ट्विटर की विशेषता है इसलिए उस भाषा में अभिव्यक्ति करना भी सरल होता है जिसे हम सीखने की प्रक्रिया में हैं। शायद यह कहना सर्वथा उचित ही है कि हिन्दी पढ़ने वाले जापानी विद्यार्थी इस माध्यम का उपयोग कर अपने आत्मविश्वास में वृद्धि करते हैं।  
इनके अतिरिक्त ब्लॉग,इंस्टाग्राम, पिंटरेस्ट, टंबलर अौर विकीपीडिया जैसी सोशल-साइट्स से भी विद्यार्थियों को बहुत मदद मिलती है। गत अकादमिक-सत्र में कुछेक जापानी छात्र हिन्दी की महत्वपूर्ण बोली अवधी को बोलने-पढ़ने को उत्सुक थे। पर अवधी की बहुत अल्प सामग्री पुस्तकालय में उपलब्ध थी। जो थी भी उससे वर्तमान अवधी की त्वरा को पहचानना मुश्किल था। इसलिए फिर सोशल-मीडिया की शरण में आना पड़ा। वहाँ कुछेक वीडियो, गाने, लिखित सामग्री मिल गयी अौर एक मित्र जो बहुधा अवधी में लेखन करते थे उनका ब्लॉग भी। यह अवधी का अद्यतन रूप था। इन सबके सहारे छात्रों ने अवधी बोलने-पढ़ने का आत्मविश्वास अर्जित किया।
साउंड-क्लाउड एक अन्य ध्वनि आधारित सोशल-नेटवर्क है जहाँ अक्सर लोग विभिन्न प्रकार का संगीत, अपनी-अपनी भाषाअों में चर्चा, परिसंवाद अौर वार्ताएँ प्रसारित कर सकते हैं। श्रवण माध्यम के रूप विगत दिनों में यह काफी लोकप्रिय होता जा रहा है। यहाँ अाकाशवाणी आदि की के समाचार अौर परिचर्चाअों को आसानी से सुना जा सकता है। प्राय: यह देखने में आया है कि छात्र पढ़ने-लिखने में तो सहज हो जाते हैं। बातचीत करने में भी उन्हें महारत हासिल हो जाती है परंतु रेडियो जैसे ब्लाइंड माध्यम पर प्रसारित कार्यक्रमों को समझना कठिनाई भरा हो जाता है। साउंड-क्लाउड पर अनेक सामान्य लोगों ने हिन्दी में अपने कार्यक्रम प्रसारित किए हुए हैं। उनको सुनने का अभ्यास कर विद्यार्थी अपनी भाषाई श्रवण क्षमता का विकास करते हैं। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि जापानी भाषा में बहुत कम धवनियाँ हैं जिससे छात्रों को अनेक स्वर साफ-साफ सुनाई नहीं देते। साउंड-क्लाउड जैसे सोशल-मीडिया का उपयोग कर छात्र ध्वनियों के अंतर को समझने का भरपूर अभ्यास कर पाते हैं।
मैं उस समय की परिकल्पना करता हूँ जब ये माध्यम उपलब्ध नहीं थे। उन दिनों अध्यापकों को ज्यादातर पुस्तकालयों अौर पाठ आधारित सामग्री पर निर्भर रहना पड़ता था। छात्रों के पास भी बहुत कम विकल्प होते थे। अधिकांशत: पुस्तकें ही उसका मुख्य अवलंबन थीं। चित्र, ध्वनियों अौर दृश्यता का इतना सुभीता न था। तब शिक्षकों के सामने मंतव्य को स्पष्ट करने की गंभीर चुनौती थी। अब एक नई चुनौती पैदा हुई है। अाप कक्षा में व्याख्यान दे रहे होते हैं अौर छात्र गूगल-गुरु से जानकारियाँ ले रहे होते हैं। आप कुछ तथ्य बताते हैं तो उसकी प्रमाणिकता विकीपीडिया ही सही पर उससे चेक होने लगती है। इस डिजीटल तकनीक ने छात्र-शिक्षक रिश्तों में नया आयाम विकसित किया है। अब महज सूचनाअों अौर तथ्यों के उद्घाटन मात्र से अच्छे अध्यापन का समय खत्म हो गया है। अब अच्छे अध्यापक को वस्तु-विश्लेषण, वैचारिक नजरिए अौर एक वाजिब दृष्टिकोण से अपनी अध्यापन शैली को संपृक्त करना होगा।

सोशल-मीडिया एक प्रकार का मुक्त माध्यम है। जहाँ सूचनाअों, उपलब्ध जानकारियों की प्रमाणिकता हमेशा संदिग्ध होती है। गेट-कीपर का अभाव सोशल मीडिया के लिए एक तरफ वरदान है तो दूसरी अोर अभिशाप भी। इसलिए शिक्षण के संदर्भ में सोशल-मीडिया की भूमिका सहयोग परक है, जिसमें अध्यापकीय संस्पर्श अौर हस्तक्षेप बेहद जरूरी है।

शतरंज के खिलाड़ी

(मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित एवं सत्‍यजीत राय की फिल्‍म से प्रेरित नाट्यप्रस्तुति)
{तोक्‍यो विदेशी अध्‍ययन विश्‍वविद्यालय हिन्‍दी द्वितीय वर्ष के छात्रों की प्रस्‍तुति 2015}
मार्गदर्शन
प्रो0 ताकेशी फुजिइ
प्रो0 योशिफुमि मिज़ुनो
परामर्श
प्रो0 केइको शिराइ
प्रो0 क्‍योसुके अदाची
लेखन व परिकल्‍पना
राम प्रकाश द्विवेदी
चरित्र
वाजिदअलीशाहगेन यामागुचि
मिर्जा-तकायुकि हारा
मीर-कजुकी  हदानो
नौकरानी-रूना फुरुसे
मि0 बेगम- काना शिमाउचि उर्फ छोटी काना
मी0 बेगम/नृत्‍य निर्देशन – मिनामी काशिमा उर्फ काशी
सैनिक/सिपाही –केइसुके किकुचि
– काना कोमात्‍सुबारा उर्फ मझली काना
स्‍लीमन-केइ नोबुओका
भांजा-मिओतेरूया
डलहौजी-रयो फुवा
बुर्का बेचनेवाली- मिनामी काशिमा उर्फ काशी
लडका-सोनोको हरादा
वाजिदअली की माँ-  
प्रकाश
ध्‍वनि एवं संगीत
वेश-भूषा
माको सवादा
काना ओमोरी उर्फ बडी काना
जनसंपर्क    
नकागावा हाना
नाट्य सामग्री
ताकाशी तातेउचि / नकागावा हना
तकाहिरो इनोमाता
यू वातानाबे
 शुन्‍ता यामाओका
यूता योकोसे               
 हितोमी फुकुदा
शिन्‍जी यमामोतो
                                                      अंकएक                 
दृश्य
( पर्दे पर1850 का लखनऊ)
समूह : कथक नाचती लड़की के साथ
LUCKNOW CITY SONG.wmv (shankar pandey) 2 मिनट
०००००००००००००
दृश्य २
( पर्दे पर1850 का लखनऊ)
[सड़कों पर लोग लोग रागरंग में मस्त घूम रहे हैं। अपना समय व्यतीत करने के लिए वे तरहतरह के कामों में लगे हुए हैं। कोई तीतर
लड़ा रहा है तो कहीं भेड़ोंबकरों की लड़ाइयाँ चल रही हैं।एक जगह पर बकरों की लड़ाई का मजा लेते लोग]
एक व्यक्ति(अपने बकरे को)-टटटटटटट चल चचच चल बेटा चल, तोड़ गर्दनफोड़ खोपड़ी
दूसरा व्यक्ति(अपने बकरे से)-अरेरेरेरे मार मार तू क्या देखता है। चढ़ जा छाती पर। पटक जमीन पर।
(दोनों बकरे तेजी से लड़ने लगते हैं। लोग तालियाँ बजाते हैं।सज्जाद मिर्जा और   मीर रोशन अली रास्ते से गुजर रहे हैं)
 मिर्जा: देखो इन जाहिलों को ये घटिया किस्म के खेलों में अपना समय जाया कर रहे हैं।
मीर: अरे मिर्जा साहब इनके पास इतना दिमाग कहाँ जो हमारी आप की तरह शतरंज खेल सकें।
 मिर्जा: चलें जल्द चलें। आ ज देर हो रही है।
मीर: रफ्तार बढ़ाएँ हुजूर। अभी से बूढ़े हो चले क्या?
 मिर्जा: बूढ़े होंगे तुम। तुम्हारा बाप। तुम्हारी———
मीर: अमा मियाँ नाराज क्यो हो रहे हो। इत्ती सी बात पर। मैंने तो बस ऐ से ही कह दिया।
मिर्जा: ऐसे बेहूदे मजाक मुझे पसंद नहीं हैं।
मीर: चलें न। आप जवान ठहरे। सोलह साल के छोकरे। अब खुश।
(मिर्जा साहब की हवेली आ जाती है।हवेली में बेगम अपने नौकरानी चाकरों के साथ सजसँवर रही हैं। मिर्जा के आते ही एक
नौकरानी  
सामने हाजिर हो जाता है)
 मिर्जा: आ इए तशरीफ लाइए। क्या पिएँगे?
मीर: पीने को तो बस हुक्का चाहिेए।
मिर्जा (नौकरानी  से): हमारे हुक्के तैयार करके ले आइए और  बेगम को बता दीजिए कि हम आ गए है।
नौकरानी : जी हुजूर
(नौकरानी  अंदर जाकर हुक्के भरते हुए, बेगम से)
नौकरानी : बेगम साहिबा नवाब साहब आ गए हैं। आपको इत्तिला करने को कहा है। साथ में जनाब मीर अली भी आए हैं।
बेगम: अरे तो मैं क्या करूँ। उनके आने न आने से मेरा क्या मतलब। और  वो मुआ मीर अली यहीं पड़ा रहे। उसके घर में क्या तमाशा
हो रहा है वो न देखे।
नौकरानी : जी बेगम साहिबा। मैं तो बस बता रहा था।
बेगम: मुझे क्यों बता रहा है। जाकर उन्हें खबर कर कि मेरे सर में दर्द हो रहा है।अन्दर आ  जाएँ।
नौकरानी : जी
(नौकरानी  हुक्के लेकर बैढक में आ जाता है। जहाँ शतरंज कि बिसात पर मिर्जा और मीर दोनों की निगाहें जमीं हुई हैं।)
नौकरानी  (मिर्जा से): हुजूर बेगम साहिबा  के सर में दर्द है।
मिर्जा (अनमने से): अच्छा। तो कोई दवा वगैरह ले लें।
नौकरानी : जी
(नौकरानी  अंदर आकर, बेगम से)
नौकरानी : बेगम साहिबा नवाब साहब कह रहे हैं कि सर में दर्द है तो कोई दवा ले लें।
बेगम: अरे जाकर कह किसररररमें दर्द है। सरररररर में। अंदर आ जाएँ।
नौकरानी : जी
(नौकरानी  फिर बाहर आता है, दोनों का अपनी चालों पर ध्यान केंद्रित है, वह सहमा हुआ खड़ा रहता है)
नवाब (मीर से): जनाब, इस बार आ प अपने बादशाह को न बचा पाएँगे।
मीर: पहले आप अपनी बेगम बचाइए।
नौकरानी  (टोकते हुए): जी हुजूर बेगम साहिबा के सरररररर में दर्द है। आ पको तुरंत अंदर बुलाया है।
नवाब: कहाँ दर्द है?
नौकरानी : सररररररर में, हुजूर।
मीर(हँसते हुए): नवाब साहब ये सरररररर क्या है। कहाँ होता है हमारे बदन में?
मिर्जा: तुम जाओ, हम अभी आते हैं। और  सुनों जाकर कह दो अभी हम मशरूफ हैं, फुर्सत में होते ही खुद आ जाएँगे। बेवजह संदेशे
न भेजें।
मीर (ठहाके मार कर हँसते हुए): सरररररर में दर्द।
मिर्जा (गुस्से से): आप क्यों बेहूदों की तरह हँस रहे हैं? क्या मजा आ रहा है आपको इसमें।
मीर (गंभीर होते हुए): आप गुस्सा क्यों होते हैं नवाब साहब। अपना घोड़ा बचाइए।
(दोनों की निगाहें फिर बिसात पर जम जाती हैं)
नौकरानी  (अंदर आकर बेगम से): बेगम साहिबा मैंने कह दिया कि आपके सरररर में दर्द है वे फिर भी नहीं आय रहे। कह रहे कि
जाकर
कह दो कि बेवजह परेशान न करें।
मि० बेगम: मैं, मैं उन्हें बेवजह परेशान कर रही हूँ। तू रुक, मैं इन दोनों को ठीक किए देती हूँ।
(मि०बेगम साहिबा एक झाड़ू लेकर बाहर निकलती हैं, सामने दोनों शतरंज में मशगूल हैं)
मीर: मिर्जा साहब अपना हाथी बचाइए। हाथी ~~~~~(long intonation)
मिर्जा (चाल चलते हुए): जनाब मेरा हाथी तो बच गया, अपनी बेगम पर गौर फरमाएँ।
(मि० बेगम झाड़ू से बिसात तितरबितर करते हुए और दोनों को झाड़ू से पीटते हुए)
मि० बेगम: मरदूदों कहीं के हम बेगमों को अब तुम्हारी कोई जरूरत नहीं। हम खुद ही बच जाएँगी। जाओ भागो यहाँ से। निठल्ले कहीं
के।
(मिर्जा और मीर बचने की कोशिश करते हुए स्टेज से अंदर भागते हैं)
[ मंच पर अंधेरा]
दृश्य ३
(वाजिद अली शाह अपने दरबार में बैठे हैं। चारों ओर नौकरानी चाकर हैं।दरबार में कुछेक कीमती सजावटें हैं। दरबार में हल्का संगीत
बज
रहा है)
वाजिद अली(एक गजलसी गुनगुनाते हुए): [some Ghazal] वाह क्या ग़ज़ल बनी है। वाहवाहवाह।(अपने एक सैनिक को पास
बुलाकर) बस अल्लाह अपना करम रखे और  मैं यूँ ही ताउम्र ग़ज़ले करता रहूँ।
सैनिक: हुजूर का इकबाल बुलंद रहे। खुदा ने चाहा तो एैसा ही होगा।
वाजिद अली: ठीक फरमाया सैनिक। अब अंग्रेजी हुकूमत के हिफाजत में अवध को कोई खतरा नहीं। कहो सैनिक, हमारे मुल्क की
रियाया खुशहाल तो है न।
सैनिक: हुजूर के होते रियाया को भला क्या कमी। सब खुशहाल है हुजूर। आ समान में पतंगों के परचम लहरा रहे हैं हुजूर। जमीन पर
तीतर और  बटेर लड़ रहे है। गलीगली बकरेभेड़ों की मुठभेड़ें हो रही है।सैनिक अपनी आरामगाहों में आराम फरमा रहे हैंजंग तो है
 नहीं हुजूर, इसलिए हमेशा जश्न में डूबे रहते हैं। जनता के पास न कोई रोजगार है हुजूर न उद्यम।
वाजिद अली(थोड़ा गुस्से में):क्या मतलब सैनिक? हमारी जनता बेरोजगार है? तुम क्या कहना चाहते हो?
सैनिक: गुस्ताखी माफ हुजूर। जनता काम ही नहीं करना चाहती यानी उसे काम करने की जरूरत ही नहीं है हुजूर।सब हुक्के गुड़गुड़ाने
में मगन हैं हुजूर।
वाजिद अली: क्या कहते हो सैनिक?
सैनिक: यही हुजूर कि जैसा राजा वैसी परजा।
वाजिद अली(गुस्से में): मेरा मजाक उड़ाते हो सैनिक! छींटाकशी करते हो ?
सैनिक: गुस्ताखी माफ हुजूर। मेरी एैसी जुर्रत कहाँ। मैं तो बस इतना फरमा रहा था कि हुजूर भी खुश है, जनता भी खुश है और  तो और  
हुकुमतबरतानिया भी खुश है हुजूर। क्या मैं कुछ गलत कह रहा था हुजूर?
वाजिद अली: वाह सैनिक वाह! मेरी सल्तनत में सब खुश हैं। क्या खूब फरमाया तुमने। क्या खूब। वाह मजा आ गया। जश्न शुरू हो।
(स्टेज पर छोटा नृत्यदृश्य[इन्‍हीं  लोगों  ने ले लीन्‍हा], जिसमें सब नाचने लगते हैं,सैनिक बाद में शराब की बोतल के साथ )
सैनिक :मजा आ रहा है लाले। अंधेर नगरी चौपट राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजा ।
[मंच पर अंधेरा]
दृश्य ४
(एक सुबह, रेजीडेंट कमिश्नर का कार्यालय, एक सिपाही वहाँ मौजूद है। दूर से अजान की आवाज आ ती है।)
स्लीमन(सिपाही से): इट्स वेरी नाइस प्लेस।द किंग ऑ व औ उद इस वेरी फैंटास्टिक पर्सन। अ पोएट, अ ड्रामाटिस्ट,
लिरिसिस्ट, अ डांसर एंड सो ऑन । हहहहहह।बट नॉट अ गुड एडमिनिस्ट्रेटर। हहहहहहहहह।सिपोय नॉट अ गुड एडमिनिस्ट्रेटर।आय
एम गोइंग टू
सबमिट अ रिपोर्ट अबाउट इट टू गवर्नरजनरल।
सिपाही: यस सर। आय एग्री विद यू। एंड सर, आ ई हैव अरेंज्ड अ गुड उर्दू टीचर फॉर यू।
स्लीमन: वॉव, वेरी गुड। व्हेन कैन ऑय मीट मॉय टीचर?
सिपाही: सर, शी इज जस्ट आउटसाइड, वेटिंग।
स्लीमन: ओह प्लीज कॉल हर।
(अध्यापिका अंदर आती है।वह देखने में सुंदर है। हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी की विदुषी है
रोशनी: गुड मॉर्निंग सर! माय सेल्फ रोशनी, रोशनी अमन।
स्लीमन: गुड मॉर्निंग।नाइस टू मीट यू। बट डोंट कॉल मीसर। यू आर माय टीचर।
रोशनी: इट्स ऑलराइट। देन, व्हॉट शुड आय कॉल यू।
स्लीमन: स्लीमन। जस्ट स्लीमन।
रोशनी: ऑल राइट। ऑलराइट। व्हेन वी कैन बिगिन?
स्लीमन: राइट नाव।
रोशनी: ओॆॆॆॆॆके
स्लीमन (सिपाही से):सिपोय।आय अम बिजि नाउ।
सिपाही: या, आय कैन सी सर! (बाहर जाता है।)
(मंच पर कुछ देर के लिए प्रकाश जलताबुझता रहता है। उर्दू / हिन्दी के कई शब्द स्क्रीन पर उभरते रहते हैं। जो वाक्यों में बदल जाते
हैं।)
रोशनी: नाउ यू कैन स्पीक उर्दू परफेक्टली।
स्लीमन:सच
रोशनी:मुच
स्लीमन (सिपाही को आवाज देते हुए): सिपाही चाई लेखर आहो
सिपाही: जी जनाब
(सिपाही चाय रख रहा है, इसी बीच)
स्लीमन: आपके नाम का क्या मतलब है?
रोशनी: रोशनी मीन्स लाइट एंड अमीन मीन्स पीस
स्लीमन: बउत अच्छा। बउत अच्छा!!!
(सिपाही चाय के कपप्लेट को खड़खड़ाता है और दोनों को देखता रहता है, चाय बाहर गिरने लगती है)
स्लीमन(आश्चर्य से): टुमको किया हुआ सिपाही?
सिपाही: कुछ नहीं जनाब वो रोशनी————— अअरोशनी——नहीं नहीं अंधेरा ————जनाब ।जनाब यहाँ अंधेरा
था तो चाय गिर गई।
स्लीमन: कोई बाट नहीं ! कोई बाट नहीं। बस टोड़ीटोड़ी ही पिएँगे।
सिपाही:जी अच्छा।
(सिपाही चाय देकर बाहर आ जाता है)
सिपाही (आत्मगत): वाहवावावा अल्लाह खैर करे। रोशनी में स्लीमन साहब की आ ँखें चौंधिया गई हैं।
(अंदर, स्लीमन साहब और रोशनी चाय खत्म कर हाथ मिलाते हुए)
रोशनी: चाय के लिए बहुतबहुत शुक्रिया। कल फिर मिलेंगे।
स्लीमन: आपका भी बहुटबहुट शुक्रिया। जी कल मिलेंगे
(रोशनी जा रही है। स्लीमन अकेले)
स्लीमन: रोशनी मीन्स लाइट। अमन मीन्स पीस। ओह रोशनी यू आर माय लाइट, यू आर माय पीस। यू आर माय लाइट। यू आर माय
लाइफ, यू आर माय पीस।
[मंच पर धीरेधीरे अंधेरा होता है]
                                                                                                  
                                                  अंक २
दृश्य १
(मिर्जा की हवेली में मीर और मिर्जा शतरंज के मोहरे ढूंढ रहे हैं)
मिर्जा: कमबख्त यहीं तो रख कर गए थे मोहरे।
मीर: तो कहाँ उड़ गए।
मिर्जा: अमा यहीं कहीं होंगे।
(दोनों बहुत ढूढ़ते है पर मोहरे नही मिलते, थक कर बैठते हुए, पास में सब्जियों की टोकरी रखी है)
मीर: अब क्या करें, मियाँ।
(तभी मिर्जा का ध्यान सब्जी की टोकरी पर जाता है)
मिर्जा: अरे वा“““`! वाह! वा! वा! वा! काम बन गया । (सब्जी की टोकरी से टमाटर, प्याज, आ लू, बैगन, मूली और  मिर्च वगैरह
निकालकर बिसात पर सजा देते हैं।)
मीर: क्या कमाल का दिमाग पाया है आपने मिर्जा साहब।
मिर्जा: अमा मियाँ! एैसे ही थोड़े रियासतअवध चल रही है।
मीर: चलिए।चलिए मैंने अपना प्यादा चल दिया है।
मिर्जा: प्यादे से क्या होता है मीर। मैं तो शुरुआत घोड़े से करूँगा।
(दोनों एकएक कर बोलते हैं)
ये रही चाल!
ये रही चाल!
(दोहराते हैं)
[मिर्जा खेल जीतने वाले हैं। खड़ा होकर नाचने लगता है]
मिर्जा:मीर हारने वाला है। मीर हार जाएगा! मीर हार जाएगा। (नाचता रहता है)
(अंदरमिर्जा बेगम नौकरानी  से)
मि० बेगम: क्या मिर्जा साहब आ गए हैं ?
नौकरानी : जी बेगम साहिबा और  मीर साहब भी हैं।
मि० बेगम: हैं ————-! कर क्या रहे हैं?
नौकरानी : वही शतरंज का खेल।
मि० बेगम: पर कैसे? मोहरे तो मेरे पास हैं।(मोहरे दिखाती है)
नौकरानी : अरे बेगम साहिबा। ये खिड़की से देखिए। क्या जुगाड़ लगाया है। मिर्जा साहब ने।
(मि० बेगम खिड़की से देखती हैं। बिसात पर सब्जियाँ सजी हैं। मिर्जा नाच रहे हैं)
मि० बेगम(गुस्से में): जाकर कह मेरे बदन में दर्द हो रहा है। अंदर आ जाएँ।
नौकरानी : जी
(बाहर आकर, मिर्जा से)
नौकरानी : हुजूर को बेगम याद कर रही हैं। बदन में बहुत दर्द है।
(मीर हँसते हुए, मिर्जा से)
मीर: मिर्जा साहब । जाइए! जाइए। अंदर जाइए।
मिर्जा: नहीं। कतई नहीं। पहले बाजी खत्म होने दीजिए।
मीर: अमां मीरजा साहब। भाभी जान का ठीक से इलाज क्यूँ नहीं कराते। वे वक्तबेवक्त बीमार पड़ जाया करती हैं।जाइए! अंदर
जाइए !
मिर्जा: नहीं, पहले बाजी खत्म होने दीजिए।
मीर: नहीं पहले आप अंदर जाइए!
मिर्जा: नहीं आप हारने वालने हैं।
मीर: नहीं पहले आप अंदर जाइए।
(मि० बेगम अंदर से देखते हुए, झाड़ू लेकर बाहर आती है और मिर्जा की पिटाई शुरू कर देती हैं)
मि० बेगम: इस मुए की असल बेगम तो संभलती नहीं शतरंजी बेगमों को बचाता फिर रहा है। हरामखोर, निठल्ले कहीं के।
मीर(खुशी से): भाग मिर्जा भाग।
मिर्जा: भाग मीर भाग।
(दोनों भागते हैं)
[मंच पर अंधेरा]
दृश्य २
(मीर की हवेली, नौकरानी  सामने हाजिर है। बिसात बिछने लगती है)
मीर (नौकरानी  से): अरे देख नहीं रहा मिर्जा साहब आ एँ हैं। कुछ पानहुक्का लेकर आ।
नौकरानी : जी हुजूर
मिर्जा: जनाब यहाँ तो मेरे गरीबखाने से भी ज्यादा शुकून है।
मीर: अरे अब यहीं जमा करेंगीं बाजियाँ।
मिर्जा: पर कहीं आपकी बेगम साहिबा भी नाराज़ होने लगीं तो——
मीर: खुदा खैर करे। वे तो बहुत खुश मिजाज और त है। और  मुझे तो हमेशा हौसल अफजाई करती रहती हैं शतरंज खेलने के लिए।
मजाल है कभी टोका हो आपके यहाँ जाने के लिए। देर से आने पर भी सर में रोगनबादाम की मालिश करती हैं। तरहतरह के लजीज
खाने रख देती सामने।हमारा कभी झगड़ा ही नहीं होता मिर्जा साहब।
मिर्जा: अरे वाह ! मीर साहब, क्या ग़जब की बेगम हैं आपकी–  जहीनशहीन, शानदारजानदार (धीरे से) नमक हराम, मक्कार,
धोखेबाज।
(नौकरानी  हुक्का और पान वगैरह रख देता है)
मीर (गुस्से और  आश्चर्य से): क्या बक रहे हैं मिर्जा साहब आप?
मिर्जा (मुस्कराते हुए): अरे यही कि अल्लाह आप जैसी बेगम सभी को दे। हुस्नहसीन, बला की खूबसूरत। शौहर के लिए हमेशा
फिक्रमंद। मीर साहब आप वाकई बड़े खुश किस्मत इंसान है जो आपको ऐ सी बेगम मिली।(पान मुँह में रखते हुए, धीरे से) बेईमान,
बेवफा ,
बदजात——
मीर (गुस्से में): क्याक्या कहे जा रहे है जनाब आप?
मिर्जा: अरे यही कि आप बड़े किस्मत वाले है। आप चाल चलने के बजाय झगड़ा क्यों करने लगते है। चाल चलिए चाल। बचाइए
अपनी बेगम
मीर: क्या मतलब
मिर्जा: बेगम बचाइए यहाँ। मीर साहब।
मीर (खिसिया कर): ये लो बच गयी बेगम।
मिर्जा: वाह क्या चाल चली है मीर साहब। क्या चाल है। लीजिए अब हाथ से गयी आप की बेगम—— हहहहहहह
मीर: आप जरा ठहरे मैं गुसल से होकर आता हूँ।
मिर्जा: होकर आइए मीर साहब। होकर आइए।
(हवेली में मीर की खाबगाह– bedroom)
मी० बेगम(दरवाजे की ओर देखते हुए): मेरे खाबों के राजा कब आएगा तू। (गला उठाकर देखती है) आ जाओ मेरे दिलजानी।
भांजा (अंदर आते हुए): दिल बईमान बईमान रे दिल०००००००००
मी० बेगम: दिल बेईमान बेईमान रे । (एक दूसरे का हाथ पकड़कर) दिल बईमान बईमान बईमान रे। हा हा हा दिल बईमान बईमान 
बईमान रे।
भांजा (हँसते हुए): कहिए मेरे दिल की मलिका कैसी हैं आप?
मी० बेगम: सब खुदा का खैर है। पर, सुनो आज वो यहीं हैं। घर पर ही।
भांजा (आश्चर्य से): हैं।सच। ताज्जुब है।
मी० बेगम: अरे वो मिर्जा, मरदूद को बेगम ने झाड़ू मार कर हवेली से बाहर कर दिया। अब आकर यहाँ पड़ा है। दोनों शतरंज की
बाजियों पर जमे हुए हैं।
भांजा (ताली बजाते हुए): फिर तो डरने की कोई बात नहीं। जानती हो मेरी जानजाना जो लोग शतरंज खेलते हैं उनकी निगाहें
बिसात के अलाव कहीं नहीं टिकती।
मी० बेगम: सच
भांजा: मुच
(दोनों हाथ पकड़ कर)
दिल बेईमान बेईमान बेईमान रे। दिल000000
(मीर के अंदर आने की आवाज)
मी० बेगम: अरे।अरे! वो आ रहे हैं।यहाँ यहाँ छुप जाओ।
(भांजा छिपने की कोशिश करता है, तभी मीर वहाँ पहुँच जाता है)
मीर: अरे ये कौन हैं? ये क्या कर रहे हैं?
मी० बेगम: जी जी ये छिप रहे हैं। क्यों छिप रहे हैं। मैं कह रही हूँ कि क्यों छिप रहे हैं?
मीर: हाँ हाँ क्यों छिप रहे हैं?
मी० बेगम: हाँ हाँ इसलिए छिप रहे है कि वो इनके पीछे पड़े हैं।
मीर: कौन इनके पीछे पड़े हैं?
मी० बेगम: वो फौज वाले। नवाब की फौज वाले।
मीर: भला क्यों?
मी० बेगम: इन्हें फौज में भर्ती करना चाहते हैं। अभीअभी यहाँ से गुजर रहे हैं वे।
मीर: तो ये कुछ बोलते क्यों नहीं। क्या हो गया है इन्हें
मी० बेगम: बहुत डर गए हैं ये।
(भांजा के सिर पर हाथ रखती है और उससे कहती है)
मी० बेगम: बोलिए! बोलिए! आप बोलिए कि आप डर गए हैं।
भांजा (मीर से):  जी जी मैं डर गया था।
मीर: अमा मियाँ। अब डरने की कोई बात नहीं। आप बड़ी महफूज जगह पर हैं।
भांजा: जी जी बहुत शुक्रिया।
मीर (बेगम से): अरे इन्हें कुछ शर्बत वगैरह पिलाइए। शिकंजी दीजिए। पसीने से तरबतर हो गए हैं। मैं जरा अपनी बाजी खत्म करके
आता हूँ।
मी० बेगम: जी जैसा आप कहें।
(मीर जाते हैं, बेगम और भांजा गाते हैं)
दिल बईमान बईमान बईमान रे।
(मंच पर अंधेरा)
दृश्य ३
(वाजिदअली शाह सजदे में नमाज पढ़ कर उढते हुए, आसपास सैनिक और दरबारी लोग हैं)
वाजिदअली:खुदा अवध की शान बरकरार रखे।
सैनिक: आप दिन में पाँच बार इबादत करते हैं। अल्लाह के करम से अवध की शान को कोई खतरा न होगा।
वाजिदअली: काश! अवध में कला और  संस्कृति की एैसी ही बहार रहे। संगीत एैसे ही फलताफूलता रहे। रातदिन कथक के घुंघरू
कानों में छम्मछम्म बजते रहें। बरतानिया हुकूमत हमारी हिफाजत करती रहे और  हम कविताएँ रचते रहें।
सैनिक(व्यंग्य से): हुजूर ने ठीक फरमाया। सड़कों पर तीतरबटेर लड़ते रहें। गलियों में भेड़ोंबकरों की मुठभेड़ें चलती रहें। सिपहसलार
शतरंज की बाजियाँ चलते रहें और  ००००००००००
वाजिदअली (आश्चर्य और  गुस्से से): क्या बकते हो सैनिक।
सैनिक: हुजूर मैं तो बस ये फरमा रहा था कि लोग अपनेअपने कामों में बहुत मशरूफ हैं। आप अपने काम में। आम लोग अपने काम
में। बरतानिया हुकुमत अपने काम में। सुनता हूँ लॉर्ड डलहौजी को चेरियाँ बहुत पसंद है।
वाजिदअली: अरे वाह। क्या बात करते हो सैनिक। चेरियाँ पसंद हैं लार्ड साहब को। काश हमारे अवध में भी चेरियाँ होतीं। पर हम उन्हें
आम खिलाएँगे। अवध का आम का खाकर लॉर्ड डलहौजी चेरियाँ खाना भूल जाएँगे। क्यों मैंने ठीक फरमाया ना।
सैनिक: वाह हुजूर! क्या बात है। क्या बात है।
वाजिदअली: तो हम अभी लॉर्ड साहब की खिदमत में आम के टोकरों के तोहफे भिजवा देते हैं। हमारी दोस्ती पक्की बनी रहनी
चाहिए।
सैनिक: बहुत उम्दा विचार है, हुजूर का। पर सुनता हूँ वे खुद ही जल्द ही नवाबअवध के नाम अपना पैगाम भिजवाने वाले हैं।
वाजिदअली: सच सैनिक।
सैनिक: सच हु उउउउउउउ जू उउउउउउउ र
वाजिदअली: कैसा पैगाम? सैनिक
सैनिक: हुजूर हमारी दोस्ती को पक्का करने का पैगाम। और  कैसा पैगाम हो सकता है भला।
वाजिदअली: तुम्हें कैसा पता चला, सैनिक
सैनिक: स्लीमन साहब के हवाले से खबर मिली है हुजूर। वे जल्द आपसे मुलाकात करने वाले हैं।
वाजिदअली: अरे वाह! तो स्लीमन साहब के लिए भी आमों के टोकरे तैयार रखना सैनिक।तख्लिया।(एक ग़ज़ल गाने लगता है)
सैनिक: जी हुजूर। (और  लोगों से) सुना तुमने आमों के तोहफे तैयार करो। हुजूर, डलहौजी का इस्तकबाल करने वाले हैं। सुना नहीं
तुमने। जाओ जाओ आम के बागों में जाओ।नवाब साहब गजल बनाने में मशरूफ हैं।
सभी लोग: राजा खाए आम। हो गया उसका काम तमाम।राजा खाए आम। हो गया उसका काम तमाम।
{मंच पर अंधेरा}
दृश्य ४
(डलहौजी का कार्यालय)
डलहौजी: मि० स्लीमन। अकार्डिंग टू योर रिपोर्ट। द कॉमन पीपुल ऑफ अवुद आर नॉट हैफी। द नवाब  इस बिजी इन हिज लाइफ।
स्लीमन:दैट्स राइट सर। द रिपोर्ट इज इन फंर्ट ऑफ यू फॉर कंसिडरेशन।
डलहौजी: व्हाट काइंड ऑफ पर्सन इस दिस फेलो। यू टोल्ड, 100 वाइव्स।(हहहहहहहहहहहहहह) नेवर टच्ड वाइन इन हिस लाइफ
(हहहहहहहह)
स्लीमन: हिस एक्सलेंसी। एंड रिफ्यूज्ड टू बी ट्रीटेड बाइ अ ब्रिटिश डॉक्टर डिस्पाइट हिस सीवीयर इलनेस।(हहहहह)
डलहौजी: हहहहहहहहहहह। फूल। आय हैव डिसाडेड टू एनेक्स अउध एंड वेटिंग फॉर द ऑर्डर्स।
स्लीमन (संशय से): बट हिस एक्सलेंसी००००००००
डलहौजी: नो नो नो , मि० स्लीमन, नो बट। आय वांट डारेक्ट कंट्रोल ओवर अउध।दिस फनी करेक्टर मस्ट गो।
स्लीमन: यस सर।
(फौजी ड्रम बजने लगता है)
[मंच पर अंधेरा]
अंक 3
दृश्य 1
(मिर्जा और मीर लखनऊ की सड़क पर चल रहे हैं )
मीर: अब कमबख्त कहाँ महफूज जगह बची है । मिर्जा साहब क्या दिन आ गए लखनऊ के शतरंज तक खेलने की कोई  महफूज
जगह नहीं बची है।
मिर्जा: जब हमारी बेगमों ने ही हमसे हमारी जगहें छीन ली हों तो हम किससे शिकवा करें मीर साहब।
मीर: मुझे याद आती है वो मस्जिद जो शहर के बाहर वीरने में है। अब वहीं चला जाय। वहीं जमेगीं अपनी चालें। न किसी का खटका
न झंझट।
मिर्जा: ठीक फरमाया मीर साहब आपने। चलो चाल बढ़ाओ।
(दोनों तेजतेज चलने लगते हैं, रास्ते में कुछेक आम लोग उन्हें आदाब करते हैं)
आम लोग: मिर्जा साहब आदाब।
मिर्जा: आदाब आदाब
आम लोग: मीर साहब को भी आदाब पहुँचे।
मीर: जी हजरात आपको भी आदाब।
आम लोग: कहाँ भागे जा रहे हैं जनाब आप दोनों
मीर और  मिर्जा (एक साथ): बस थोड़ा तफरीह करने निकले हैं।
मिर्जा: शहर से बाहर ताजी हवा की खुशबू लेने।
मीर: जरा खुले आसमान के नीचे घूमने से तबीयत अच्छी रहती है न।
आम लोग: सो तो है। पर जनाब कहीं आपकी बीवियों ने धक्के मार कर निकाल तो नहीं दिए।
मीर: कैसी बातें करते हों तुम लोग। जरा भी तमीज नहीं।
मिर्जा: कमबख्त कहीं के।
आम लोग(दोनों के आगे आकर): अरे सच बात है तभी कड़वी लग रही है न।
मिर्जा और  मीर (एक साथ): चलो हमारा रास्ता छोड़ो। जलील कहीं के।
(दोनों फिर तेजी से चलने लगते हैं
मिर्जा: ये लखनऊ शहर को क्या हो गया मीर साहब। घरों की बातें आम लोगों तक मालूम होती जा रही हैं।
मीर: ठीक फरमाते हैं साहब। शहर से तहजीब ही गायब हो गयी। निठल्ले कहीं के। दूसरों की जिंदगी में ताकाझांकी करते हैं।
मिर्जा: चलिए चलिए। वो देखिए वहाँ एक सुनसान गाँव दिखाई दे रहा है।
मीर: अरे हाँ। चलिए। वहीं जमेगी आज की बिसात।
(दोनों गाँव में पहुँच जाते हैं, चटाई बिछाते हुए इधरउधर देखते हैं)
मिर्जा: यहाँ तो कोई नहीं मीर मेरे यारा।
मीर: सच। मजा आ गया।
मिर्जा: पर यार ये भूखप्यास मिटाने के लिए कोई तरीका तो निकालो। शतरंज से पेट थोड़ी भरेगा।
(तभी एक लड़का आता हुआ)
लड़का: नवाब साहिब आदाब।
मीर और  मिर्जा (दोनों एक साथ): आदाब! आदाब!
मीर: अरे ये बताओ गाँव वाले कहाँ चले गए। कोई मेलाजलसा है क्या।
लड़का: अरे हुजूर आपका नाही मालूम का। ब्रिटिश सेना लखनऊ पै कब्जा करै आ रही है।
मीर और  मिर्जा (एक साथ, आश्चर्य से): हैं००००००००।तुम्हें कैसे पता।
लड़का: साहिब। रोजइ चरचा होइ रही है यही बात कै। नवाब वाजिदअली साहब डलहौजी लाट साहब के सामने समर्पण करि दिए।
मीर और  मिर्जा (एक दूसरे से): बड़ा गजब हो रहा है। लखनऊ की फिजा ही खराब होती जा रही है।
मिर्जा: खैर छोड़िए। चाल चलिए मीर साहब।
मीर: ये ली———जिए।
लड़का: साहिब गर खानापानी चाहिए तो हुक्म कीजिएगा।
मीर और  मिर्जा (एक साथ): वो तो चाहिए ही।चाहिए ही।
मिर्जा: अच्छा ये बताओ तुम क्यों नहीं गए गाँव छोड़कर?
लड़का: हमैं साहिब बरतानिया फौज की वर्दी बहुत पसंद आवत है। हम ऊका देखै खातिर रुक गए हैं।
मीर: बरतानिया फौज की वर्दी??? क्या मतलब?
लड़का: मतबल यह कि हमैं बरतानिया फौज की लालपीलीकाली वर्दी बहुतै पसंद है साहिब। हम ऊका अपनी आँख से देखा चाही
थे साहिब।
मिर्जा: अच्छा। अच्छा। सुनो हमारे लिए चौक से बढ़िया कबाब और  रूमाली रोटियाँ ले आओगे?
लड़का: बिल्कुल साहिब।
मीर: ये लो पैसे (पैसे देता है)
मिर्जा: चलिए, चाल चलिए मीर साहब।
मीर: ये लीजिए शह, अपना बादशाह बचाइए।
मिर्जा: ये लो बचा लिया।
मीर: कब तक बचाओगे मिर्जा
मिर्जा: मेरा बादशाह तो बचे न बचे पर आपकी बेगम गयी हाथ से मीर साहब।
मीर (आश्चर्य से): क्या कहना चाहते हैं, मिर्जा साहब?????
मिर्जा: वही जो आप समझना नहीं चाहते मीर साहब।
मीर: क्या ???? क्या???? मतलब आपका।
मिर्जा: यही कि भांजे साहब के क्या हाल हैं???
मीर: आप साफसाफ कहिए न। क्या कहना चाहते हैं?
मिर्जा: अपनी बेगम बचाओ मीर साहब।
मीर(खड़े होकर, गुस्से में): जाहिल कहीं के । गँवार। बेजा बात करते हैं। तमीज खो बैठै हैं आप।
मिर्जा: सच तो बुरा लगता ही है मीर साहब।
मीर (तमंचा निकालकर): अब आप ने एक भी लफ्ज बोला नहीं कि मैं०००००००००
मिर्जा: क्या कर लेंगे आप।गोली चलाएँगे न! चलाइए चलाइए! पर सच तो सच ही रहेगा न।
मीर(फायर करते हुए, गोली मिर्जा के कंधे पर लगती है): बस अब चुप। चुप्प नाशुक्रे इंसान।साला, बेईमान, बेगैरत।
(मिर्जा कंधा पकड़ कर बैठ जाता है)
मिर्जा: अरे मीर मेरे यार। दिल पर चलाई होती गोली दिल पर। दोस्त थे इसलिए सच कह दिया। तुम्हारी गोली से डर कर मैं झूठ तो नहीं
बोलूँगा।
मीर(तमंचा फेंक कर, रोते हुए): सच कहते हो मिर्जा। दुनिया में अब कोई अपना नहीं रहा। माफ कर दो मुझे मेरे दोस्त, माफ कर दो।
(दोनों गले मिलते हैं)
  (मंच पर अंधेरा)
दृश़्य २
(वाजिदअली शाह का दरबार)
सैनिक: हुजूर।हमारे आम लाट साहब को इतने पसंद आए कि वो अब अवध से आपकी बेदखली का पैगाम भेज चुके हैं।
वाजिदअली: कुछ इस तरह सौदा किया वक्त ने मुझसे। तजुर्बे देकर मासूमियत ले गया मेरी। सही कह रहे हो, सैनिक। अंग्रेज कभी
किसी के दोस्त नहीं हो सकते। मैंने क्याक्या नहीं किया इनके लिए। समयसमय पर तरहतरह के तोहफे दिए। मनमाने पैसे दिए। अपनी
आनबानशान इनके कदमों में रख दी। फिर भी बरतानिया हुकूमत खुश नहीं।
सैनिक: हुजूर, आपकी इजाजत हो तो अवध की जनता लड़ने के लिए तैयार है।
वाजिदअली: सैनिक! दोनों ओर से हमारे ही लोग मारे जाएँगे। अंग्रेजी फौज में भी हमारे ही मजलूम लोग हैं। हमने भी सोचा था कि
अंग्रेजो से दोस्ती कर हम महफूज है।क्या पता था वे ही बेवजह हमारे दुश्मन बन बैठेगें। नहीं अब मैंने अपनी जनता को लड़ने के
काबिल ही नहीं
छोड़ा।
सैनिक: यह तो सच है।
वाजिदअली: हमारी जनता अब तीतरबटेर, भेड़बकरे लड़ाने में मशगूल है। वह शतरंज की बिसात पर शहमात का खेल खेल रही
है। नहीं नहीं अब हम अंग्रेजों से नहीं लड़ सकते। सब कुछ खत्म हो चुका है सैनिक। कब आ रहे है जनाब डलहौजी?
सैनिक: हुजूर, इत्तिला मिली है कि वे रास्ते में ही हैं।
वाजिदअली: अम्मी जान को भी बता दो।
सैनिक: जी जरूर
वाजिदअली: आ ने दो आने दो मेरे अजीज दुश्मन को आने दो। करने दो उसे बेवफाई करने दो।
दृश्य ३
(डलहौजी का काफिला आता हुआ, गाँव में मिर्जा, मीर और लड़का)
लड़का: हुजूर हम खाना लेके आइ रहे हैं पर उ देखिए हुआँ अंग्रेजी फौजें भी आय रही हैं।
मीर: आने दो, आने दो। वाजिदअली हो या डलहौजी हमें क्या फर्क पड़ता है। लाओ खाना लाओ।
मिर्जा: ये लो बड़े लजीज कबाब है।
मीर: अमा मियां ये टंगड़ीचिकन तो उठाओ। क्या मजेदार बने हैं।
मिर्जा: वाह। वाह ! मजा आ गया।
(खाना खत्म करते हुए)
मीर: तो चलो आज की आखिरी बाजी और  हो जाय।
मिर्जा:क्यों नहीं, क्यों नहीं
(लड़का बीच में बोलते हुए)
लड़का: साहिब आप लोग न लड़िहौ अंग्रेजी फौज से।उ लखनऊ मा घुसी जाय रही है।
मीर और  मिर्जा (एक साथ, हँसते हुए): हहहहहहहहहहहहह अरे हम लड़ ही तो रहे है। ये देखो पूरी की पूरी दो फौजें हैं आमनेसामने।
बादशाह, बेगम, हाथी, घोड़ा, ऊँट, पैदल सब तो हैं हमारी पलटन में। फिर भी तुम कह रहे हो कि हम लड़ नहीं रहे हैं।
लड़का (नाचते हुए): अरे वाह अरे वाह। मर गए महाराज मजा आ गया है। मर गए महाराज मजा आ गया है।
मीर और  मिर्जा (एक साथ नाचते हुए):मर गए महाराज मजा आ गया है। मर गए महाराज मजा आ गया है।
(मंच पर अंधेरा)
दृश्य ४
(वाजिदअली शाह का दरबार में तथा वाजिदअली की माँ और कुछ और  लोग)
वाजिदअली की माँ:यह स्लीमन और  डलहौजी साहब ने अच्छा नहीं किया। हैं तो वे महारानी बरतानिया के मुलाजिम ही। उनसे बिना
पूछे एैसा कैसे कर सकते हैं ये लोग।
वाजिदअली: हम कर भी क्या सकते हैं अम्मी जान। अब तो सारी बागडोर इन्हीं के हाथों में है।
माँ: मैं लन्दन जाऊँगी। इनके खिलाफ महारानी के दरबार में अपील करूँगी। सुनती हूँ महारानी बहुत ही गैरतमंद इंसान हैं। वे जरूर
कुछकुछ कार्यवाही करेंगी।
वाजिदअली: मुझे तो लगता है अब कोई फायदा न होगा। फिर भी आप जाना चाहें तो जाएँ। मुझे कल ही नजरबंदी में कलकत्ता ले
जाएँगे। पूरे परिवार के लिए १२ लाख रूपये सलाना पेंशन मुकर्रर कर दी है।
माँ: बात पैसे की नहीं है। सम्मान की है। इसलिए मैं लन्दन तो जरूर जाऊँगी
वाजिदअली:जैसा ठीक समझें आप।
माँ:अच्छा अब मैं जाती हूँ। खुदा खैर करेगा। अपना ख्याल रखना।
वाजिदअली:जी ।(माँ जाती है।गाते हुए)
                          –गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डाले केश
                         चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देश
(मंच पर अंधेरा)
दृश्य ५
(लखनऊ की ब्रिटिश सुबह, फौजी सैनिक गश्त कर रहे हैं। मीर और मिर्जा अपनी शतरंज लिए खेलने की जगह ढूँढ रहे हैं)
मीर: अब कहाँ चले मिर्जा? ससुरे बरतानी सिपाही सब जगह मौजूद हैं। पकड़े गए तो देश निकाला तय मानो।
मिर्जा: अब तो हवेली में भी रहना ठीक नहीं मेरे मीर।
मीर: पर बाजी न खेलें तो बेचैनी सी रहती है। नींद कैसे आएगी बिना दोदो हाथ हुए।
मिर्जा: अमाँ मियाँ यही तो परेशानी है। नवाब साहब को तो पेंशन मिल गयी। भेजे जा रहे हैं कलकत्ते। हम ठहरे ठेठ अवधी। न छोड़ेंगे
शहर लखनऊ।
मीर: कैसी बात करते हो। कौन जाएगा लखनऊ शहर छोड़कर जनाब।
(तभी एक सैनिक सामने से आता हुआ)
मीर और  मिर्जा (एक साथ, धीरे से): छिपो! छिपो! फौजी आ रहा है।
(सैनिक चला जाता है)
मिर्जा: मीर इस तरह तो मुश्किल है। छिपछिप कर जीना। पकड़ लिए गए तो सीधे जेल जाना पड़ेगा।
मीर: ठीक कहते हो। पर करें भी तो क्या??
(सामने एक बुर्के की दूकान दिखाई देती है)
मिर्जा: ओ मीर मेरे यारा।देख सामने देख।
मीर: क्या देखूँ।सामने तो दूकान है।
मिर्जा: दूकान नहीं, कमबख्त बुर्के की दूकान है
मीर: तो______!
मिर्जा: तो हम बुर्का पहन लेते हैं।इन बरतानिया जालिमों से तो बचेंगे।
मीर: ला हौल बिला कुव्वत। अब नाजनीन बनेंगे क्या। कैसी शान के खिलाफ बातें करते हो, मिर्जा।
मिर्जा: अरे मीर मेरे यारा। बात को समझ न। समझ न बात को। यहाँ से बुर्का पहन कर चलते हैं उसी दूर गाँव में। वहाँ न किसी का डर न
कोई खौफ। आराम से बाजियों पर बाजियाँ चलते रहेंगे। और  उस लौंडे से लजीज कबाब और  रूमाली रोटियाँ और  टँगड़ी कबाब
मँगामँगा कर खाते रहेंगे। यहाँ मरनेकटने दे नवाब वाजिदअली शाह को।
मीर: वाह! वाह! शाबाश मिर्जा।शाबाश। क्या दिमाग पाया है तुमने।चलो दो बुर्के खरीदते हैं।
(बुर्के की दूकान में जाकर, बेचनेवाली से)
मिर्जा: मोहतरमा कैसे दिए बुर्के।
दूकानवाली(आश्चर्य से): आप को चाहिए।
मिर्जा (शरमाते हुए, मीर की ओर इशारा करते हुए): नहीं नहीं इन्हें।
मीर(मिर्जा की ओर): नहीं नहीं इन्हें।
मिर्जा: नहीं इन्हें।
मीर: नहीं इन्हें
मीर और  मिर्जा(एक साथ): नहीं हमें
 मीर और  मिर्जा(एक साथ): नहीं हमें
दूकानवाली: हैंएएएएएएएएएए। आप हजरातों को बुर्के की क्या जरूरत आन पड़ी?
मीर और  मिर्जा(एक साथ): अरे क्या बकती हो? हम अपने लिए थोड़े ही ले रहे हैं।
दूकानवाली: फिर जनाआआआआआआआब???
मीर और  मिर्जा(एक साथ): अरे हमें अपनी बेगमों को तोहफे देने हैं।
दूकानवाली: जीइइइइइइइ। कौन सा दूँ?
मीर और  मिर्जा(एक साथ): बस ये काले वाले निकाल दें । दो दीजिए।
दूकानवाली(दो बुर्के निकाल कर देती हुई): लीजिए जनाब।
मीर और  मिर्जा(एक साथ): बहुतबहुत शुक्रिया।
दूकानवाली: आपका भी शुक्रिया
(दोनों आगे चले जाते हैं)
दूकानवाली: ये शानअवध को क्या हुआ? आ दमी भी बुर्के पहनने लगे। हहहहहहहहहह।
(थोड़ी दूर जाकर सुनसान जगह पर मीर और मिर्जा)
मिर्जा: जल्दी पहन मीर । यहाँ कोई देखने वाला न है मियाँ।
मीर(बुर्का पहनते हुए): हाँ! हाँ! जल्दी।जल्दी करो।
(दोनों बुर्का पहन कर चलने लगते हैं, एक सैनिक आता हुआ इन दोनों को देखता है)
सैनिक(अपने आप से): लखनऊ की और तों में अब वो नफासत न रही। वो नजाकत न रही। हाय।
मिर्जा: देखते हो मीर अब वो हममे नजाकत और  नफासत ढ़ूँढ़ रहा है।
मीर: वाकई मिर्जा साहब। सोचा न था एैसे दिन भी देखने लिखे हैं अपनी किस्मत में।
मिर्जा: वाह रे खुदा । तेरी क्याक्या मर्जी। चलो रफ्तार बढ़ाओ मियाँ।
(सामने गाँव दिखाई देता है)
मीर: चलो अपना ठिकाना आ गया।
मिर्जा: हाँ मीर साहब। बड़ा मुश्किल दिन था। अब कुछ समय शुकून से गुजरेगा। उतार फेंकिए ये बुर्का
(बुर्का उतारकर मीर और मिर्जा चटाई बिछा कर बैठते हैं और शतरंज की बिसात लगाते हैं)
मिर्जा: मीर साहब जरा लौंडे को आवाज दीजिए
मीर: अरे जनाब लौंडे मियाँ। कहाँ हो? हम बुला रहे हैं। हम।
(कोई आवाज नहीं आती)
मिर्जा: अबे वो लौंडे, कहाँ मर गया। बाहर आ। कुछ खानेपीने का इंतजाम कर।
(लड़का ब्रिटिश सैनिक के ड्रेस में बाहर आता है)
लड़का: कौन है?
मीर और  मिर्जा(एक साथ, डर कर): अरे अरे आप!
लड़का: वाह क्या बात है।नवाब साहब। बड़े दिन से ढ़ूढ़ रहे थे। अब जाकर मिले आप। वो भी यहीं।(लड़का आवाज देते हुए)
लड़का:फौजियों गिरफ्तार कर लो दोनों को। ये है अवध के नवाब वाजिदअली के खास मुलाजिम मिस्टर सज्जाद अली और  जनाब
रोशन अली।
मीर और  मिर्जा(एक दूसरे से): बुर्के पहनों मियाँ बुर्के।
(मीर और मिर्जा एक साथ बुर्के पहनने लगते हैं, लड़का बुर्के छीन लेता है)
लड़का (दूसरे सैनिकों से): गिरफ्तार करो दोनों को और  लगवाओ ऊठकबैठक।
(सैनिक दोनों को गिरफ्तार कर लेते हैं)
लड़का: कान पकड़ कर लगाइए दस ऊठकबैठक नवाब साहिब।
(मीर और मिर्जा झिझकते हैं)
लड़का(गुस्से में, कड़क आवाज में): सुना नहीं नवाब साहिब। या तमंचा चलाऊँ टांगों के नीचे।
(दोनों कान पकड़कर ऊठकबैठक शुरू कर देते हैं और दस तक गिनती गिनते हैं)
लड़का: अब मुर्गा बनिए नवाब साहब। मुर्गा।
मीर और  मिर्जा: अरे मुर्गा कैसे बनते हैं। हम इंसान हैं। मुर्गे नहीं।
लड़का ( दूसरे सैनिक से): इन्हें मुर्गा बन कर दिखाइए
(सैनिक मुर्गा बनता है)
लड़का: एैसे नवाब साहिब। एैसे।आप ने शतरंज की बिसातों पर बड़े ऊँटघोड़े दौड़ाए हैं। अब मुर्गा बन कर दौड़िए।
(मीर और मिर्जा संकोच करते हैं। तभी लड़का हवा में गोली चला देता है, दोनों झटपट मुर्गा बन जाते हैं)
लड़का: बहुत अच्छा नवाब साहिबों। बहुत अच्छा। अब कुकड़ू कूँ बोलतेबोलते दौड़ लगाइए।
(मीर और मिर्जा कुकड़ू कूँ बोलते हुए दौड़ लगाते हैं। बार गिर जाते हैं। फिर दौड़ते हैं)
[मंच पर धीरेधीरे अंधेरा]
समापन नृत्‍य कजरारे, कजरारे
 समाप्त

मेरे ज्ञान का वट-वृक्ष

(साभार: रमा यादव)
बात उन दिनों की है जब पिता जी जिद कर रहे थे कि मैं उनके व्यवसाय में शामिल हो उनकी सहायता करूँ।मुझे उनकी इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं होती थी। कोई सामान बेचना मेरे लिए बेहद चुनौतीहीन लगता था। इसलिए मैं उनकी बात टालता रहता था। राहुल सांकृत्यायन की किताबें जहन में जोर मार रहीं थीं। दुनिया घूमने का सपना बार-बार आता था। इसलिए टूरिज्म का कोर्स करने पहुँच गया। 12 वीं कक्षा तक साइंस पढ़ने के बाद विज्ञान को छोड़कर कुछ अौर पढ़ना चाहता था। टूरिज्म में दाखिले के समय मेरा चरित्र प्रमाण-पत्र स्कूल में ही रह गया था। जब अपने स्कूल पहुँचा तो वापस जाने के लिए समय बहुत कम बचा था। इसलिए हिन्दू कॉलेज में हिन्दी में ही दाखिले के लिए चला गया। बाद में टूरिज्म में माइग्रेशन की अपेक्षा के साथ। 1990 में पालीवाल सर ही इंचार्ज थे। पहुँचा तो थोड़ा डरा हुआ था। यदि आज दाखिला नहीं हुआ तो सब अटक जाएगा। उन्होंने ने मेरे कागजात चेक किए। फिर पूछा कोई कविता या डिबेट करते हो। मैंने कहा-जी सर! वे तपाक से बोले -कविता सुनाअो बेटा। मैंने दसवीं कक्षा में एक कविता लिखी थी-
स्वर्ण जड़ित रथ में चढ़कर, जब सूरज नभ में आता है।
मुखरित मानव मन होता है, पुष्प पेड़ लहराता है।
इस कविता के कुछ अंश सुनाए। उन्होंने फॉर्म दिया अौर मेरा दाखिला हो गया। बाद में मान्धाता अोझा, हरीश नवल, सुरेश ऋतुपर्ण, विजया सती, दीपक सिन्हा अौर रामेश्वर राय जैसे सभी अध्यापकों के प्रभाव ने हिन्दी ही पढ़ते रहने की प्रेरणा का सृजन कर दिया था, इसलिए टूरिज्म की बात पीछे रह गयी थी। जैसाकि सभी जानते हैं कि पालीवाल जी की स्मृति अत्यंत समृद्ध थी, इसलिए वे कक्षाअों में लगातार आकर्षित करते थे। अोजस्विता उनका दूसरा पहलू है। बहुत ऊर्जा के साथ उनका कक्षाअों में प्रवेश होता था अौर वे विषय के व्यापक आयाम खोल देते थे। उनके अध्यापन को ही देखकर लगता था कि हिन्दी एक ताकतवर भाषा है। दूसरे वर्ष में पता चला कि वे विश्वविद्यालय में चले गए है। इसलिए मिलना कम हो गया था। कभी-कभी अभय ठाकुर के साथ मिलने का मौका मिलता था।बाद में जब एम०ए० करने गया फिर उनके संपर्क में आया। उन दिनों कक्षाअों में नित्यानंद जी, पालीवाल जी अौर त्रिपाठी जी सबसे आकर्षित करते थे।पालीवाल जी में प्रवाह बहुत होता था। बहुत से मित्र इसकी अालोचना करते थे। शायद दुनिया का न सही पर भारत का सबसे बड़ा सच ‘ईष्या अौर निंदा’ है। विश्वविद्यालय के दूसरे किसी अध्यापक में यह ताकत नहीं थी कि वह इतनी ऊर्जा से क्लास को चला सके। इसलिए वे निंदा का विषय बनते रहे। आपकी क्षमताएँ ही जब निंदा का विषय बनने लगें तो यह आपकी सफलता ही मानी जाएगी। आम छात्र तो सच को पहचनता है। इसलिए पालीवाल जी उनके बीच लोकप्रिय बने रहे। वे संकुचित विचारपंथी नहीं थे। बहुत तरह के विचारों का वे समभाव से आदर करते थे अौर हमें भी उसी तरह से सोचने-समझने की प्रेरणा देते थे। आज जब विचारधाराअों के महल खण्डहरों में तब्दील हो गए हैं तो उनकी स्मृति बड़े उज्ज्वल रूप में उभरती है। हाँ, वे गाँधी, आंबेडकर अौर लोहिया के सबसे करीब दिखाई देते थे पर मार्क्स की भी कभी भोड़ी व अतार्किक आलोचना की हो एेसा मुझे ध्यान नहीं आता। वे मार्क्स की तो नहीं पर अपने ईर्द-गिर्द जमा मार्क्सवादियों की खबर लेने में चूक नहीं करते थे अौर उनके अच्छे मित्रों में भी मार्क्सवादी ही थे।
माथे पर धँसी हुई दो छोटी-छोटी अाँखों में कितनी शक्ति है कितना उजाला है यह तब जान पाया जब उनके साथ पीएच०डी० करने का मौका मिला। हिन्दू कॉलेज अौर विश्वविद्यालय में ज्यादातर मैं अगली सीट पर ही बैठता था। कभी-कभी पढ़ाते हुए वे कंधों को झकझोर देते थे। याद नहीं पड़ता उन्होंने कभी बैठकर पढ़ाया हो। एक दिन लंच करते हुए हम कक्षा में बेतरतीब बैठे हुए थे। वे ‘राम की शक्तिपूजा’ का मौखिक वाचन करते हुए प्रवेश कर रहे थे। सब चंद सेकेण्डों में ही व्यवस्थित हो गए। हिन्दू कॉलेज में पता नहीं था कि वे सिगरेट पीते हैं। एक दिन जब विश्वविद्यालय के उनके कमरे में गया तो क्लास के ठीक पहले वे मुट्ठी बंद कर सिगरेट का लंबा कश खींच रहे थे। आश्चर्य चकित था, उनके इस स्टाइल पर।बाद में मैं उनकी अनेक बातों की मिमिकरी करता था अौर मित्र कहते थे मैं बहुत अच्छी तरह करता हूँ।उनके अध्यापन का असर कक्षाअों के बाहर भी मेरे साथ चला था। अौरों के साथ भी जरूर जाता रहा होगा। इसलिए मेरे मित्र मनीष रंजन भी हूबहू उनकी नकल उतार लेते थे।
पीएच०डी० के ही दिनों में उनके रोहिणी वाले अौर बाद में साकेत के घर में बराबर जाना होता रहा। पर ज्यादातर मुलाकातें लॉ फैकल्टी की चाय की दुकान पर होती थी। अनेक छात्र वहाँ आकर जम जाते थे अौर सहमतियों-असहमतियों के साथ हम अक्सर उनको बस अौर बाद में मेट्रो तक छोड़ने जाते थे । मेरे पीएच०डी० के ही दिनों वे यहाँ तोक्यो विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय में थे। मुझे उनके लौटने का बेसब्री से इंतजार रहता। शोध की प्रगति अौर उसकी दिशा पर वे अक्सर अपनी मूल्यवान राय देते।यहाँ के किस्से-कहानियाँ भी वे सुनाते रहते।एक बार मैंने पूछा था कि-सर वहाँ कैसा लगता है आपको। उनका उत्तर था-सब मरि जाय अौर हम जाय। तब इंटरनेट का जमाना नहीं था। जापान जहाँ लोग अपने तक महदूद रहते हैं -उनके लिए जो हमेशा छात्रों-सहयोगियों के बीच घिरे रहते थे-एक मुश्किल मुकाम रहा होगा। आज जब मैं संयोग से यहीं हूँ, इस बात को ज्याद अच्छी तरह समझ सकता हूँ। पहली बार उनसे ही ‘साके’ (जापानी शराब ) शब्द सुना था। शंकर जी काफी उत्साहित हो जाते थे।बाद में उनसे मिलने का मौका संगोष्ठियों में ही मिलता था। लिखने-पढ़ने के लिए वे हमेशा प्रोत्सहित करते।पर हम सब अपनी मौज में बह रहे थे अौर आज भी वैसा ही है। हमारे सीनियर शंकर जी उनके सबसे करीबी थे। रमेश ऋषिकल्प को वे मित्रवत-शिष्य मानते थे। पर बेवजह अड्डेबाजी का समय उनके पास नहीं था। इसलिए हम सब अकेले-अकेले उनके साथ थे। या उन्हें अकेला कर रहे थे।भारतेन्दु, रामचंद्र शुक्ल, मैथिलीशरण गुप्त, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, विजयदेवनारायण साही को वे गहराई से याद करते थे। अपने समकालीनों में वे राम विलास शर्मा, रामस्वरूप चतुर्वेदी, केदारनाथ सिंह अौर अोम थानवी की चर्चा  बार-बार करते थे। (शायद मुझसे बहुत बातें छूट रही होंगी, आप जोड़ सकते हैं)। वे आदिकाल से लेकर समकालीन साहित्य तक किसी भी लेखक-रचनाकार को तर्कसंगत ढंग से पढ़ा सकते थे। परंपरा, आधुनिकता अौर उत्तर-आधुनिकता पर जब-जब उनसे बात हुई मेरा मानस कुछ समृद्ध ही होता चला गया था। उन्होंने पूरे देश में घूम-घूम कर व्याख्यान दिए हैं।प्रत्यक्ष शिष्य-समुदाय के अतिरिक्त परोक्ष शिष्यों का आदर-स्नेह उन्हें मिलता रहा है। भारत के जिस भी हिस्से में जाने का मौका मिला वहीं जब पालीवाल सर के अपने पीएच०डी० गाइड होने की बात बतायी तो आगे का परिचय देन की जरूरत न पड़ी। किसी शिष्य को गुरू एेसी शक्ति प्रदान कर दे तो उसका जीवन सार्थक हो जाता है। आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, उनका दिया दर्प, गौरव अौर स्वाभिमान मेरे साथ खड़ा है।वही मेरी सबसे मूल्यवान पूँजी है।जापान में उनके मित्रों तोशियो तनाका, तोमियो मिज़ोकामि, अकिरा ताकाहाशी, ताकेशि फुजिइ अौर यशोफुमि मिज़ुनो को जब उनके देहावसान की सूचना दी तो सभी स्तब्ध थे। सबका शोक संदेश भी आ गया।वे अपने शिष्यों अौर मित्रों में सर्वदा आदर के साथ याद किए जाएँगे।

अनेक बातें हैं। एक अटूट श्रृंखला है उनके साथ गुजारे समय की। कहाँ तक लिखूँ।बस कुछ या बिल्कुल नाकुछ ही कह पाया हूँ अभी। शायद फिर कभी कुछ-कुछ अौर लिख सकूँगा।रमा यादव जी ने पालीवाल सर का अनूठा चित्र फेसबुक पर प्रेषित किया है।  गाँधी, आंबेडकर अौर लोहिया के जीवन-दर्शन का जो पाठ उन्होने हमें पढ़ाया है वह बहुत हद तक इस चित्र में समा गया है। फिलहाल तो एेसा लगता है कि मेरे ज्ञान का वट-वृक्ष कुम्हला भले ही गया हो पर उसमें से अनेक नयी जड़े जम चुकी हैं वे उनके विचारों को कभी सूखने न देंगी। उनकी शिष्य-मंडली अपने मानस में सदैव उनकी स्मृति सुरक्षित रखेगी। गुरू देहान्त के बाद अपने शिष्यों की नजरों से दुनिया देखता है, उसका संचालन करता है, मरकर भी अमर ही रहता है। आपकी पावन-समृति को नमन, विनम्र श्रद्धांजलि।

शकुंतला

Draft-1 {E&OE}
शकुंतला
                                         (महाकवि कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ पर आधारित)
पात्र:
मार्गदर्शन:
विशेष सहयोग:
आलेख एवं परिकल्पना:
निर्देशन:
नृत्य निर्देशन:
अंक १
दृश्य १
[पर्दा उठता है]
सभी पात्रों का मंत्रोच्चार
ऊँ भूर्भ्व स्व:~~~~~~~
वक्रतुण्ड महाकाय~~~~~~~
{अंधेरे के बाद प्रकाश}
कालिदास: हमारा जीवन भाग्य की विडंबनाअों अौर संभावनाअों की ही कहानी है।शकंुतला का जीवन भी भाग्य के इसी खेल से संचालित हो रहा था। आइए तो इसे जानने के लिए चलते हैं कण्व ऋषि के आश्रम में।
कण्व ऋषि का आश्रम
एक शांत अौर सुहावने जंगल में साफ-सुथरा आश्रम। जंगल के आसपास बहुत से हिरण अौर खरगोश चर रहे हैं।  एक पेड़ पर कोयल की कूक सुनायी देती रहती है। चारों अोर रंग-विरंगे फूल खिले हुए हैं। कुछ युवतियाँ आपस में हँसी-मज़ाक में मशगूल हैं। उनमें से ही जो सबसे रूपवती है वह शकुंतला है। सब बड़ी बेफिक्री से इधर-उधर घूमती हैं अौर हिरणों तथा खरगोशों से खेलती रहती हैं। आसमान में बादल घिर आए हैं। रह-रहकर बिजली कड़कती है।
एक सहेली: लगता है आज बारिश होगी। (शकुंतला को पकड़ते हुए) देख शकुन कितने सुहाने बादल आ गए हैं।
शकुन्तला: (हँसते हुए) बादल ही तो अाए हैं, किसी का संदेश तो नहीं लाए। अब बादलों के साथ-साथ कोई अौर भी तो आए जिंदगी में।
बाकी सहेलियाँ: (शकुन्तला के आसपास आकर, मज़ाक में) वो हो!!! किसकी प्रतीक्षा है?
शकुन्तला: बस कोई भी। सुंदर-सा, वीर युवक। (सब मिलकर हँसने लगती हैं)
दृश्य २
एक जंगल। कुमार दुष्यंत अपने मित्रों के साथ शिकार पर आया हुआ है।//////
दुष्यंत: (बेचैन सा) देखो मित्र ! आज इस हिरण ने तो मेरे छक्के ही छुड़ा दिए। न जाने कहाँ से कहाँ गायब होता जाता है।  पकड़ में ही नहीं आ रहा है। अौर इन बादलों को देखों न जाने कब बरस पड़ें। लगता है आज खाली हाथ ही लौटना पड़ेगा।
एक मित्र: हाँ कुमार आज का शिकार तो थोड़ा मुश्किल है न। पर हम इसका पीछा करते-करते कितनी दूर भी तो आ गए हैं। अौर ऊपर से ये बारिश !!!!(बारिश की बूँदा-बाँदी अौर बादलों की गर्जना) । लौटना भी तो मुश्किल है कुमार।
दूसरा मित्र: (सामने की अोर संकेत करता हुआ) वो देखो कुमार! वो रहा आपका शिकार। चलो पीछा करो, जल्दी!
(सब शिकार का पीछा करते हुए भागते हैं) 
जंगल में शिकार के दृश्य——भागते हुए
दृश्य ३
कण्व ऋषि का आश्रम
(शकंुतला एक हिरण को भागते हुुए अपनी तरफ आते देखती है। वह उस मृग-छौने को अपनी गोद में उठा लेती है। पुचकारते हुए उसके शरीर पर हाथ फेरती है।)
शकुंतला: क्यों घबराए हुए हो? यह ऋषि कण्व का आश्रम है। यहाँ सब शांति अौर सहअस्तितव से रहते हैं। देखो कितना सारे पेड़-पौधे अौर वनस्पतियाँ, पशु-पक्षी अौर जीव-जंतु निर्भय होकर यहाँ रहते हैं। इसलिए भय छोड़ों अौर मुस्कराअो मेरे मृग छौने। (तभी अंदर से राका भी वहाँ आ जाती है।अपनी सहेली राका की अोर देखकर) अरी सुन ना। देख कितना प्यारा छौना है। घबराया हुआ है। इसे तनिक पानी तो पिला।
राका: सचमुच शकुन, बड़ा ही प्यारा है। (पानी पिलाते हुए) लो पी लो। डरने की कोई जरुरत नहीं। तुम यहाँ बिल्कुल सुरक्षित हो।  
(इसी बीच कुमार दुष्यंत अपने साथी-सैनिकों के साथ आश्रम में आ धमकता है) 
दुष्यंत: (अपने सा़थियों से, हँसते हुए) देखों यहाँ  छिपा है मेरा शिकार। (राका को संबोधित करते हुए) महाशया! यह मेरा शिकार है। इसे छोड़ दीजिए।
शकुंतला: (हस्तक्षेप करते हुए) युवक मित्र! यह ऋषि कण्व का आश्रम है, कोई शिकारगाह नहीं। क्या आप इस वन्य प्रदेश का नियम नहीं जानते? निर्भयता ही यहाँ का केंद्रीय मूल्य है।
(दुष्यंत शकुंतला की आवाज सुनकर चौंकता है अौर भौचक्का सा उसकी अोर देखता है। अपने मन में सोचता है)
दुष्यंत: (शकुंतला की अोर टकटकी लगाकर देखता हुआ) अोह रूपसि! सचमुच ही। निर्भयता ही तो केंद्रीय मूल्य होना चाहिए हम सबका। फिर मैं क्यों भयभीत हो रहा हूँ। क्यों तुम्हारा सौन्दर्य मुझे डरा रहा है। मेरे धनुष-वाण क्यों शिथिल पड़ रहे हैं यहाँ !
(दुष्यंत शकुंतला  एक दूसरे को निर्निमेष देखते रहते हैं)
दुष्यंत का सैनिक साथी: हे कुमारी। हम क्षत्रिय हैं अौर हमारा धर्म ही शिकार करना है। माना कि निर्भयता यहाँ का केंद्रीय मूल्य है पर इसके लिए हम अपना धर्म तो नहीं छोड़ सकते।
राका: सैनिक! तुम अपने धर्म से बँधे हो तो हम अपने कर्तव्यों से। महर्षि कण्व के आश्रम में शिकार वर्जित है अौर इस मूल्य की रक्षा के लिए हम कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी सैनिक।  
सैनिक: अच्छा देवि! फिर तो हमें भी कुछ सोचना पड़ेगा। (दुष्यंत की अोर देखते हुए) कुमार क्या आदेश है? (दुष्यंत-शकुंतला एक दूसरे की आँखों में उलझे हुए हैं, आश्चर्य से) कुमार! कुमार!! (वे यथावत रहते हैं, राका की अोर देखते हुए) देवी लगता है सचमुच इस स्थान पर कुछ विशेष है।
राका: (दुष्यंत, शकुंतला की अोर देखते हुए) आश्चर्य!! घोर आश्चर्य!!! (सैनिक की अोर देखते हुए) सैनिक! आपके कुमार तो शिकार करने आए थे वे तो खुद ही शिकार हो गए। 
(राका अौर सैनिक दोनों शकुंतला अौर दुष्यंत को टोकते हुए) 
दोनों एक साथ: अरे! क्या हुआ? आप दोनों ठीक तो हैं न।
[शकुंतला अौर दुष्यंत दोनों चौंककर एक दूसरे से अलग हट जाते हैं। दोनों शर्माते हैं।]
शकंुतला: हाँ, बिल्कुल हम ठीक हैं।
दुष्यंत: हाँ, हाँ बिल्कुल हम ठीक ही तो हैं।
राका अौर सैनिक: (हँसते हुए) वो तो हमें दिखाई ही दे रहा है। (फिर हँसने लगते हैं)
दुष्यंत: (सैनिक से) सैनिक हमारा शिकार कहाँ गया।
सैनिक: (हास्य करते हुए) कुमार, शिकारी तो खुद शिकार हो गया।
दुष्यंत: (रोष में) मजाक छोड़ो सैनिक। हमें यह आखेट का कार्य पूरा कर अपने राज-काज में भी लगना है।
राका: अरे कुमार! इतनी भी क्या जल्दी है! कुछ दिनों रहकर हमारा आतिथ्य स्वीकार कीजिए, फिर चले जाना।
सैनिक: (परिहास में) कुमार! प्रस्ताव बुरा नहीं है।
दुष्यंत: तुम्हे परिहास की सूझ रही है सैनिक अौर यहाँ मेरा बहुमूल्य समय व्यर्थ हो रहा है।
राका: हम जानते है कुमार कि आपका समय अत्यंत कीमती है पर एेसा आतिथ्य भी तो रोज-रोज नहीं मिलता।
दुष्यंत: सो तो ठीक है देवी पर……
शकुंतला: पर क्या कुमार! आप शिकार करते-करते काफी थके से लग रहे हैं कुछ दिन विश्राम करने से आप आराम महसूस करेगें।
दुष्यंत: प्रस्ताव तो अच्छा है देवि अौर फिर मेरा भविष्य तो बहुत ज्यादा व्यस्त होने वाला है। राज-काज आसान तो नहीं है। इसलिए कुछ दिनों विश्राम करने मेँ कोई दोष नहीं है।
शकुंतला (अौर अन्य सहेलियाँ): धन्यवाद कुमार! हमारा प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए। हम निश्चय ही गौरवांवित हुए हैं।
राका: (सब से) तो कुमार के आतिथ्य की तैयारी हो।
००००००
(मंच पर विश्राम के लिए वस्तुएँ रखी जाती हैं। खाने के लिए भी फल आदि लाए जाते हैं) 
दुष्यंत: आह! सचमुच कितना थक गया था मैं।
शकुंतला: जी कुमार । अब पूरी तरह आराम कीजिए अौर ध्यान रखिए कि इस अरण्य में शिकार पूरी तरह वर्जित है। यह एक अभयारण्य है। हमारी परंपरा में प्रकृति अौर मनुष्य सब को बराबर का अधिकार है इस धरती पर।
दुष्यंत: जी धन्यवाद। मैं सहमत हूँ आपके विचारों से।
(दुष्यंत का सोने का अभिनय अौर शकुंतला का वहाँ से अलग चला जाना)  
शकुंतला: (एकांत में) पता नहीं क्यों कुमार को देखकर मन विचलित हो रहा है। कुछ विशेष भावनाएँ पैदा हो गयी हैं। किस से पूछूँ? ये क्या है?
(एक सहेली का आगमन)
सहेली: क्या देवि! क्या पूछना चाहती हैं?
शकुंतला: (चौंकते हुए) नहीं तो री! कुछ भी तो नहीं!
सहेली: अब तो मत छिपाअो। छिपाने से दर्द बढ़ता है।
शकुंतला: शायद तू सच कहती है रे! पता नहीं क्यों कुमार के लिए मेरे मन में विशेष भावनाएँ पैदा हो गयी हैं। विचलित हूँ।
सहेली: (परिहास में) अो हो! विशेष भावनाएँ!!! 
शकुंतला: यह परिहास की बात नहीं। मेरा मन विचलित हो रहा है।
सहेली:(चिढ़ाते हुए) तो इसकी सूचना कुमार को दे दें?
शकुंतला: धत पगली! चल कहीं घूमने चलते हैं। (दोनों बाहर निकल जाते हैं)
(दुष्यंत सोकर उठता है।)
दुष्यंत: कैसा सुहाना परिवेश है। शांत अौर शीतल। परिंदे अपनी ही रौ में उड़े जा रहे हैं। खरगोश, मृग अौर मयूर बिना किसी भय के विचरण कर रहे हैं। पर मेरा हृदय अशांत क्यों है?
(सैनिक का आना)
सैनिक: कुमार जाग गए?
दुष्यंत: सोया ही कब था सैनिक! इतने शांत परिवेश में मेरा हृदय अशांत क्यों है? ऋषि-कन्या मेरे हृदय को बार-बार विचलित करती है। क्या यह उचित है मित्र!
सैनिक: कुमार! उचित अौर अनुचित तो क्या पता? पर यदि आपके हृदय में कोमल भाव आ रहे हैं तो उनकी अभिव्यक्ति जरूरी है।
दुष्यंत: अभिव्यक्ति तो ठीक है पर ‘नकार’ का भय रोक लेता है बार-बार।
सैनिक: कुमार ‘नकार का भय’ तो है पर ‘स्वीकार का आह्लाद’ कितना मादक है।
दुष्यंत: सच कहते हो मित्र! व्यक्त करो अौर मुक्त रहो। नकार अौर स्वीकार से।
सैनिक: तो चलें कुमार?
दुष्यंत: अवश्य।
(दोनों साथ-साथ निकल जाते हैं)
दृश्य४
[शकुंतला अपनी सहेलियों के साथ बाग में बैठी है। सुहाना मौसम है। वह अनमनी-सी इधर-उधर टहल रही है। ]
शकुंतला: आज कैसा हर्ष-मिश्रित विषाद है। जीवन का पहला अनुभव। वही पुरानी सहेलियाँ यहाँ है, पर इनसे बात करने का जी नहीं करता। मन में कुछ अौर ही बातें बार-बार आ रही हैं। जैसे कोई बात निकलने को आतुर हो।
(दुष्यंत का अपने सैनिक के साथ प्रवेश)
दुष्यंत: प्रणाम देवियों!
(शकंुतला के साथ-साथ उसकी सारी सहेलियाँ सावधान हो जाती हैं)
शकुंतला: प्रणाम देव!
दुष्यंत: अापके आतिथ्य से अब बिल्कुल नयापन अनुभव कर रहा हूँ। मेरे जीवन का यह अनोखा अनुभव है। आश्रम का परिवेश अत्यंत शीतलदायी है इसलिए मेरे हृदय में अनेक कोमल भावनाअों का संचार हो रहा है।
(सैनिक अौर सहेलियाँ एक साथ आकर)
सब: (परिहास में) हूँ ~~~~~लगता है आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई है।
सैनिक: आग ही नहीं देवी पूरा का पूरा हवन कुण्ड जल रहा है।
सब: (हँसते हुए) चलो उनकी सहायता करते हैं।
(सब दोनों के पास जाते हैं, दोनों एक दूसरे में खोेए हुए हैं)
सब: (परिहास में)क्या आप दोनों के मन में एक-दूसरे के लिए कोमल भावनाएँ विकसित हो रही हैं? हहहह(सब हँसते हैं)
(दुष्यंत अौर शकुंतला शरमा जाते हैं)
दुष्यंत: शायद आप सब सच कहते हैं, क्यों देवि शकुंतला।
सब:स~~~~~~~च!!!!
शकुंतला: जी हाँ, हम दोनों एक दूसरे से स्नेह करने लगे हैं। 
सब: ऐसा क्या!!!!!
दुष्यंत: जी हाँ, बिल्कुल एैसा ही है। अौर यदि देवि शकुंतला अनुमति दें तो मैं विवाह के लिए तत्पर हूँ।
शकुंतला: कुमार! यह हृदय अब आप का है। तन तो तुच्छ है। आप जैसा उचित समझे वैसा करें।
दुष्यंत: (सब को संबोधित करते हुए) तो विवाह की तैयारी की जाय।
(मंच पर विवाह की तैयारी, जयमाल डालकर विवाह)
दुष्यंत: आज से मैं आपको अपनी अर्धांगिनि स्वीकार करता हूँ।
शकुंतला: आभारी हूँ कुमार। आज से मेरा सब कुछ आपका।
दुष्यंत: देवि शकुंतले! यह राज-मुद्रिका है।(अँगूठी पहनाता है) हमारे विवाह की निशानी। इसे हमेशा धारण किए रखना देवि।
शकुंतला: जैसा कहें कुमार! मैं अवश्य ही इस अँगूठी को सदैव अपनी तर्जनी में धारण किए रखूँगी!
दुुष्यंत: धन्वाद देवि! अब हमें आज्ञा दीजिए। आपके आतिथ्य में राजकाज का काम बहुत पीछे छूट गया है। अवसर मिलते ही मैं आपको अौपचारिक तौर पर विदा करा कर ले जाऊँगा। तब तक ऋषि कण्व भी आ चुके होंगे।
शकुंतला: जी कुमार! प्रजा का कार्य भी महत्त्वपूर्ण है।
(शकुंतला अौर दुष्यंत एक दूसरे के गले मिलते हुए विदा देते हैं)
[मंच पर अंधेरा, पर्दा]
अंक २
दृश्य१
[लगभग २ वर्ष का अन्तराल]
(कण्व ऋषि का आश्रम। शकंुतला बार-बार अँगूठी को देखती है अौर उसे छूती रहती है। भरत का इर्द-गिर्द खेलने का आभिनय)
शकुंतला: बहुत दिन बीत गए कुमार का कोई समाचार नहीं मिला। अब तो भरत भी बड़ा हो गया है। कितने दिनों तक केवल इस अँगूठी के सहारे उनकी प्रतीक्षा करूँ। कुमार ने यह सुन्दर राजचिह्न दिया है वे मुझे भूल तो नहीं सकते। 
(अँगूठी पहनने अौर निकालने का उपक्रम, इसी बीच दुर्वासा ऋषि की दरवाजे पर दस्तक)
दुर्वासा: बम बम भोले !! कोई है?
(शकुंतला अँगूठी में उलझी रहती है, दुर्वासा को अनदेखा करते हुए)
दुर्वासा: बम बम भोले!!! अरे, कोई है?
(शकुंतला फिर अनसुना करती है)
दुर्वासा: (थोड़ा उचकते हुए) हूँ~~~~~~~~~~अो कन्या! मैं  ऋषि दुर्वासा तेरे द्वार पर पुकार रहा हूँ।
(शकुंतला ध्यान ही नहीं देती)
दुर्वासा: (क्रोध से काँपते हुए, comedy creation) अो कन्या!!! मैं ऋषिराज दुर्वासा हूँ। तेरे द्वार पर आया हूँ।
(शकुंतला अपने में खोई रहती है)
दुर्वासा: (पूरी तरह क्रोधित होकर, कमण्डल का पानी निकालता है): भस्म ही कर दूँ? अरे! ये तो किसी मुद्रिका में उलझी है। क्या है? लगता है प्रेम में मुग्ध है। मेरा तिरस्कार करती है। श्राप देता हूँ।(क्रोध में लाल-पीला होता है अौर बोलता है) जा मूर्ख बालिका जिसकी याद में खोकर तू मेरा तिरस्कार करती है वह तुझे हमेशा के लिए भूल जाएगा।
(सहेलियों का अचानक से आना अौर शकुंतला को सचेत करना, साथ ही दुर्वासा से क्षमा प्रार्थना करना) 
दुर्वासा: (अौर क्रोध में आकर) पर इस हठधर्मी को तो देखो पता नहीं किसकी याद में खोकर मुझे अनदेखा करती है।
शकुंतला: (ग्लानि से) ऋषिवर!! मैं कण्व ऋषि की पुत्री शकुंतला हूँ,मुझे क्षमा करें। अापका तिरस्कार या निरादर करने का मेरा कोई उद्देश्य नहीं था। एेसा करना तो मुझसे अनजाने में हो गया। मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।
दुर्वासा: नहीं शकुंतला!! कभी नहीं!!! ऋषि भूखा रह सकता है। प्यासा रह सकता है। अपने प्राण त्याग सकता है पर अपमान सहन नहीं कर सकता। तुमने मेरा घोर अपमान किया है इसलिए तुम्हे इसका परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा।
शकुंतला: पर ऋषिवर, यह अक्षम्य अपराध तो मुझसे अनजाने में हुआ है। कृपया अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें। मैं आपसे हृदय के अंतरतम से क्षमा माँगती हूँ, ऋषि श्रेष्ठ!
दुर्वासा: ऋषि की वाणी कभी मिथ्या नहीं हो सकती। न ! कभी नहीं।
शकुंतला: ऋषिवर! मेरी आयु अौर अवस्था को देखकर कोई तो मार्ग निकालिए।
सारी सहेलियाँ: जी ऋषिवर! इसे हम सबकी विनम्र प्राथना मानिए अौर शकुंतला को क्षमा कर दीजिए।
दुर्वासा: पर! मैं अपनी बात वापस तो ले सकता।
सारी सहेलियाँ: कोई तो मार्ग होगा।
दुर्वासा: अच्छा तो (सोचते हुए) केवल इतना हो सकता है कि शकुंतला इस प्रेम की निशानी को जब अपने पति को दिखाएगी तो उसे अपने इस संबंध की पुनर्स्मृति हो जाएगी।
शकुंतला समेत सभी सहेलियाँ: बहुत आभार ऋषिवर। कुछ दिन यहाँ रहकर हमारा आतिथ्य स्वीकार करें अौर हमें अपनी ज्ञान-राशि से समृद्ध करें।
दुर्वासा: ठीक है। यही उचित होगा अौर महर्षि कण्व यदि वापस आ सके तो उनके दर्शन भी हो जाएँगे।
शकुंतला समेत सभी सहेलियाँ: हम आपके अत्यंत आभारी हैं ऋषिवर!
दृश्य २
( दुर्वासा आश्रम में आराम कर रहे हैं। भरत आसपास खेलने में व्यस्त रहता है। शकुंतला की सहेली राका भरत को खेलते हुए देखती है अौर ईर्ष्या से भर जाती है )
राका: (सोचते हुए) शकुंतला तो पटरानी बन जाएगी। मैं कब तक इस आश्रम की धूल फाँकती रहूँगी। मेरा जीवन भी कितना अभागा है। कोई तो आए इस जिंदगी में। ताजे हवा के झोंके की तरह। आह!! दुर्भाग्य। (दुर्वासा ऋषि की अोर देखते हुए) ऋषि की सेवा करूँ तो शायद मेरा सौभाग्य लौटे। (दुर्वासा के लिए पानी अौर फल अादि लेकर आती है)
दुर्वासा: (आहट से जागकर) अरे बेटी ये क्या करती हो? 
राका:बस ऋषिवर आपकी तुच्छ सेवा। आप हमारे विशिष्ट अतिथि हैं न। यह तो मेरा कर्तव्य है। लीजिए जल से हाथ-मुँह धोकर थोड़ा फल आदि खा लीजिए।
दुर्वासा: हाँ! उचित बात है। मुझे आगे देशाटन के लिए भी जाना है।
राका: जी ऋषिवर! (फल आदि परोसते हुए) पर आप यहाँ रहना चाहें तो हमें कोई आपत्ति तो नहीं होगी।
दुर्वासा: आपत्ति की बात तो नहीं पर ऋषि अौर जल ठहरकर अपनी ऊर्जा नष्ट कर देते हैं। (फल आदि खत्म करके) अच्छा तो अब विश्राम बहुत हो गया अगले गंतव्य की अोर बढ़ता हूँ। अौर हाँ ! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ इसलिए जादुई शक्ति का वरदान तुम्हें देता हूँ। अब चलता हूँ।
राका: जो इच्छा ऋषिवर। 
दुर्वासा:बेटी शकुंतला को मेरा आशीर्वाद देना अौर ऋषि कण्व पधारें तो मेरा विनम्र प्रणाम प्रेषित करना।
राका: अवश्य! जादुई शक्ति प्रदान करने के लिए आभारी हूँ।
दुर्वासा: सदा सुखी रहो! ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे।
(दुर्वासा का जाना अौर राका अपने आप से)
राका: आह जादुई शक्ति! रानी शकुंतला अब मेरे पास भी कुछ है। (जोर-जोर से हँसती है)
दृश्य३
(भरत अौर शकुंतला एक दूसरे से लुका-छिपी का खेल खेल रहे हैं।)
शकुंतला:भरत कहाँ हो?
भरत: ढूँढों माता श्री।ढूँढों-ढूँढों!! मैं यहाँ हूँ।
शकुंतला: पकड़ लिया-पकड़ लिया
भरत:(हँसता है) हा हा हा।
(कण्व ऋषि का आगमन अौर आश्चर्य से भरत अौर शकुंतला को देखकर)
कण्व: अरे! ये नव आगंतुक कौन हैं?
शकुंतला: पिता श्री आप कब पधारे?
कण्व: बस बेटी अभी-अभी आया हूँ। पर ये महोदय कौन हैं?
भरत: मैं राजा दुष्यंत का पुत्र भरत हूँ, ऋषिवर!
शकुंतला: पिता श्री, आप थोड़ा विश्राम तो करें फिर सारी बात बताती हूँ।
कण्व:अच्छा! तो थोड़ा जल तो लेकर आ।
शकुंतला: जी! अभी लायी।
(भरत ऋषि की दाढ़ी से खेलने लगता है)
शकुंतला: (पानी देते हुए) लीजिए पिता श्री।
कण्व: पर बेटी ये तो बता ये महोदय यहाँ कैसे पधारे?
शकुंतला: पिता श्री। क्षमा प्रार्थी हूँ। पर आपके अनुपस्थिति में अापकी अनुमति के बिना मैंने अौर पुरु पुत्र राजकुमार दुष्यंत ने विवाह कर लिया था। भरत हमारा ही पुत्र है।(भरत की अोर संकेत करते हुए) भरत! ——को प्रणाम करो।
भरत: (प्रणाम करने के लिए आगे आता है) प्रणाम।
कण्व: पुत्री पर यह उचित तो नहीं हुआ। विवाह के बाद पुत्री का पिता के घर रहना ठीक नहीं। क्या कुमार दुष्यंत फिर कभी आए यहाँ?
शकुंतला: नहीं पिता श्री फिर तो नहीं आए शायद व्यस्त होंगे।
कण्व: पर विवाह के बाद कुछ हाल-समाचार तो लेना चाहिए था।
शकुंतला: जी! सो तो है।
कण्व: पुत्री तू स्वयं जा कुमार दुष्यंत के पास। कहीं ऐसा न हो कि देर हो जाय। देख भरत कितना बड़ा हो गया है।
शकुंतला: जो आज्ञा पिता श्री।
(मंच पर अंधेरा)
[पर्दा गिरता है]
अंक३
दृश्य१
(घने जंगल का दृश्य, शकुंतला दुष्यंत से मिलने जा रही है।)
शकुंतला: कितना डरावना जंगल है। राह भी बहुत कठिन है। पिता श्री कहते हैं कि अब मैं अपने जीवन का दायित्व स्वयं उठाऊँ। सच ही तो है। मुझे स्वयं ही रास्ते बनाने पड़ेंगे। (सामने नदी आ जाती है) अरे आगे तो नदी है। क्या करूँ?
(तभी एक स्त्री का प्रवेश, यह राका है जिसने जादू से अपना रूप बदला हुआ है)
स्त्री: अरे! क्या बात है?
शकुंतला: मैं यह नदी पार करना चाहती हूँ, पर लगता है बहुत गहरी है।
स्त्री: यदि तुम पार करना चाहती हो तो मैं तुम्हारी सहायता कर सकती हूँ, यदि तुम चाहो।
शकुंतला: जी हाँ, बिल्कुल करना चाहती हूँ। क्या आप मेरी सहायता करेंगी?
स्त्री: अवश्य।
शकुंतला: बहुत धन्यवाद।
स्त्री: अच्छा तो मेरे पीछे-पीछे आअो।
(दोनों नदी में उतर जाती हैं)
शकुंतला: मुझे बड़ा डर लग रहा है।
स्त्री: डरने की कोई बात नहीं। बस मेरे पीछे-पीछे चलती चलो। अाअो मेरा हाथ पकड़ लो।
(शकुंतला हाथ पकड़ लेती है, तभी राका उसे डुबाने की कोशिश शुरू कर देती है)
शकुंतला: अरे यह कर रही हो? तुम कौन हो?
राका: पहचान मैं राका हूँ। तूने मेरा प्यार, मेरा दुष्यंत मुझसे छीना है।
शकुंतला: अरे तू जादूगरनी कब बन गयी।
राका: (फिर उसे डूबाती है) अब इन बातों का कोई मतलब नहीं। तू मरेगी तो मैं जिऊँगी।
शकुंतला: एेसा मत कर राका। यदि मैं मर भी गयी तो दुष्यंत कभी तुझे नहीं मिलेगा।
राका: तो तू मर पहले।
(राका बार-बार शकुंतला को डुबाती है। पर शकुंतला किसी तरह बचकर निकल जाती है। राका पछताते हुए)
राका: अोह बच गयी। पर मैंने ये अँगूठी तो निकाल ही ली(अँगूठी देखते हुए) अब दुष्यंत उसे कभी पहचान न पाएगा। हहहहहहह। हहहहहह। हहहहहहह।
(राका बार-बार अँगूठी देखती अौर हँसती है, तभी नदी के अंदर से एक मछली उछल कर अँगूठी निगल लेती है, राका अपने खाली हाथ को देखती है अौर चिल्लाने लगती है)
राका: हाय मेरी अँगूठी! हाय मेरी अगूँठी। ले गयी मछली। चलो कोई बात नहीं शकुंतला का भाग्य तो बिगाड़ ही दिया मैंने।
(नदी से बाहर आते हुए हँसती है)हहहहह।हहहहहह।हहहहहह।
(मंच पर अंधेरा)
[पर्दा गिरता है]
दृश्य२
(दुष्यंत का राजमहल, द्वार पर शकुंतला थकी-हारी पहुँचते हुए)
शकुंतला: मुझे महाराज दुष्यंत से मिलना है।
प्रहरी: आप कौन है, देवि!
शकुंतला: मैं महाराज दुष्यंत की धर्मपत्नी, शकुंतला हूँ।
प्रहरी: (आश्चर्य से) हैं~~(स्वत:) लगता है कोई पागल स्त्री है (बोलते हुए)~~~~पर देवि जहाँ तक हमें मालूम है वे तो अभी तक वे अविवाहित हैं।
शकुंतला: नहीं प्रहरी। यह सत्य नहीं है।
प्रहरी: हूँ~~~~~~~~~(स्वत:)पूरी पागल है।
शकुंतला: आप जाकर महाराज को मेरे आने की सूचना दें।
प्रहरी: जी अवश्य!
(प्रहरी महल के भीतर जाता है। महाराज दुष्यंत अनमने से इधर-उधर घूम रहे हैं)
प्रहरी: महाराज ! क्षमा प्रार्थी हूँ।
दुष्यंत: कहो प्रहरी! क्या बात है?
प्रहरी: महाराज द्वार पर एक स्री स्वयं को आपकी धर्मपत्नी बताते हुए आपसे मिलने की अनुमति माँग रही है।
दुष्यंत: हहहहहहह! मेरी धर्मपत्नी!!! 
प्रहरी: जी महराज! लगता है कोई पागल अौरत है।
दुष्यंत: अच्छा!! एेसा है तो मिलना तो जरूर चाहिए। भेज दो उसे भीतर।
प्रहरी: जो आज्ञा महाराज।(बाहर आकर, शकुंतला से) जाइए, महाराज आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
शकुंतला: (भीतर जाते हुए) धन्यवाद प्रहरी!
(शकुंतला भीतर जाती है, महाराज अपने सिंहासन पर बैठे हैं)
शकुंतला: प्रणाम महाराज!
दुष्यंत: प्रणाम देवि! कहिए मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ।
शकुंतला: महाराज विवाहोपरांत स्त्री का अपने माता-पिता के घर रहना ठीक नहीं। मैं आपसे यहाँ रहने की अनुमति चाहती हूँ।
दुष्यंत: (स्वगत)सचमुच विक्षिप्त है!!! (बोलते हुए) तो देवि क्या मैंने आपसे विवाह किया है?
शकुंतला: महाराज दुष्यंत! क्या आपको हमारे प्रेम अौर विवाह की कोई स्मृति नहीं।
दुष्यंत: (स्वगत) सच में यह अौरत मानसिक संतुलन खो चुकी है। (प्रत्यक्ष) अच्छा देवि तो मैंने आपसे प्रेम भी किया अौर विवाह भी?
शकुंतला: (रोष में) महाराज दुष्यंत!! यह आपके अौर मेरे जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना है। आप इसे विस्मृत कैसे कर सकते है?
दुष्यंत: देवि अभी तक तो मैंने सोचा कि आप विक्षिप्त हैं, इसलिए आपकी बात सुनता रहा। पर अब आप मर्यादा पार कर रही हैं। 
शकुंतला: महाराज दुष्यंत! सदियों से पुरुष स्त्रियों को मर्यादा का पाठ पढ़ाते आ रहे हैं जबकि सच तो यह है कि उनको बिल्कुल मर्यादा पालन का ज्ञान नहीं।
दुष्यंत: देवि यह अशिष्टता है। यदि मैंने आपसे प्रेम अौर विवाह किया है तो उसका कोई प्रमाण उपस्थित कीजिए, अन्यथा राज-प्रसाद से प्रस्थान कीजिए।
शकुंतला: जी महाराज! आप महाराज हैं अौर पुरुष भी। आपको याद नहीं कि आपने मुझसे प्रेम अौर विवाह किया। पर, प्रमाण मैं दूँ।
दुष्यंत: आप मेरा समय व्यर्थ कर रही हैं। प्रमाण दीजिए अन्यथा मुझे प्रहरियों को आदेश देना होगा।
शकुंतला: नहीं महाराज दुष्यंत! इसकी आवश्यकता नहीं ।वैसे प्रेम को प्रमाण की आवश्यकता न होनी चाहिए पर, मेरे पास प्रमाण है। यह लीजिए प्रमाण…..
(शकुंतला अपने हाथ की उँगली ऊपर उठाती है, पर यह देखकर सन्न रह जाती है कि उसमें अँगूठी नहीं है)
दुष्यंत: (अट्टहास करते हुए) हाहाहाहा। हाहाहाहा। यह आपकी कनिष्ठा!!!! हाहाहहाहा। यह है प्रमाण।
शकुतला: (उदासी अौर शर्म से) महाराज! मुझे क्षमा करें। लगता है जो राज-मुद्रिका आपने मुझे दी थी वह कहीं गिर गयी।
दुष्यंत:(रोष में) अब आप स्वत: तुरंत बाहर चली जाँए। मेरे पास व्यर्थ करने के लिए समय नहीं है।
(शकुंतला चुपचाप राजसदन से बाहर जाते हुए, आत्मगलानि से)
शकुंतला: (स्वगत) कहाँ गयी अँगूठी। अपने प्राणों से भी प्यारी। अोह क्या करूँ…….
{मंच पर अंधेरे के बाद प्रकाश}
कालिदास: जब भाग्य अच्छा न हो तो सारा परिवेश प्रतिकूल हो जाता है। चंद्रमा सूरज की तरह तपिश पैदा करता है अौर बादल अंगार बरसाते हैं। शकुंतला के साथ भी अभी एेसा ही हो रहा था। पर समय अौर भाग्य तो बदलते रहते हैं। तो देखिए आगे क्या हुआ।
दृश्य३
(एक मछुआरे का घर)
मछुआरा: (पत्नी से)सुनो जी! आज बड़ी मछली हाथ लगी है।
मछुआरी: सच! तो आज भरपेट खाएँगे।
मछुआरा: जल्दी करों, बहुत जोर की भूख लगी है। लाअो चाकू तो दो।
मछुआरी: (चाकू देते हुए) लो जल्दी से काट लो।
(मछुआरा काटने के लिए तैयार होता है, मछली इधर-उधर भागती है, comedy …///dialogue of fish????, अंतत: मछली काटने पर उसे अँगूठी दिखाई देती है,  उसे हाथ में लेकर,आश्चर्य से)
मछुआरा: अरे देखो-देखो! कैसी सुंदर अँगूठी है।
मछुअारी: अरे वाह!! ये तो बहुत सुंदर है। पर यह क्या है?
मछुआरा: कहाँ?
मछुआरी: यह (ध्यान से देखते हुए) यह!! इस पर तो राजा की मुहर है।
मछुआरा: अरे हाँ! ये तो राज-मुद्रिका है। बड़ी कीमती है। अब हम अमीर हो जाएँगें। (नाचने लगता है)हहहह
मछुआरी: (गुस्से में) नहीं, कदापि नहीं। इसे तुरंत राजा को लौटा देना चाहिए। इस पर हमारा कोई अधिकार नहीं।
मछुआरा: सच कहती हो। मैं अभी जाकर इसे राजा दुष्यंत को सौंप देता हूँ।
मछुआरी: हाँ। यही उचित है।
दृश्य४
(दुष्यंत का राजसदन)
(मछुआरा दुष्यंत के द्वार पर पहुँचता है, प्रहरी से)
मछुआरा: मुझे महाराज दुष्यंत से मिलना है।
प्रहरी: क्या काम है?
मछुआरा: एक विशेष काम है। केवल महाराज को ही बता सकता हूँ।
प्रहरी: अच्छा प्रतीक्षा करो।
(प्रहरी का दुष्यंत के पास जाकर)
प्रहरी: महाराज की जय हो। एक मछुआरा आपसे मिलने की अनुमति चाहता है।
दुष्यंत: प्रहरी! भेज दो उसे। मेरा सदन हमेशा ही मेरी प्रजा के लिए उपलब्ध है।
प्रहरी: जो आज्ञा महाराज।
(प्रहरी मछुआरे के पास आकर)
प्रहरी: जाअो। महाराज बहुत दयालु हैं। उनसे कोई भी मिल सकता है। अभी कुछ दिनों पहले वो पगली भी मिलकर गयी थी।
(मछुआरा अंदर जाता है)
मछुआरा: महाराज की जय हो।
दुष्यंत: कहो मछुआरे ! मेरे राज्य में प्रजा सुखी तो है न। मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ?
मछुआरा: महाराज के शासन में प्रजा बिना किसी भय अौर संताप के सुखी जीवन व्यतीत कर रही है। आप जैसा दयालु राजा
भाग्यवान प्रजा को ही मिलता है। आज मैं एक विशेष प्रयोजन से यहाँ आया हूँ।
दुष्यंत: नि:संकोच कहो!
मछुआरा:(अँगूठी निकलते हुए) महाराज! यह राज-मुद्रिका मुझे एक मछली के पेट से मिली। मैंने सोचा यह शायद आपके किसी काम की हो।(अँगूठी पास जाकर देता है)
दुष्यंत: (अँगूठी देखते हुए चकरा जाता) अरे! मछुआरे!! कहाँ मिली यह अगूँठी!!!!
मछुआरा: महाराज मछली के पेट से।
दुष्यंत:(शकुंतला की याद ताजा हो जाती है) अरे! क्या अनर्थ हुआ मुझसे। मैं देवि शकुंतला को पहचान ही नहीं सका। बिल्कुल ही भूल गया था।क्या दुर्व्यवहार किया मैंने देवि के सा़थ। (चक्कर खाकर गिर जाता है, प्रहरियों को आवाज देते हुए)प्रहरी!! प्रहरी!!!
(प्रहरी अंदर आते हैं, मछुआरा डरकर भाग जाता है)
प्रहरी: अरे महाराज! क्या हुआ?
दुष्यंत: मेरा अश्व तैयार करो।
प्रहरी: जो आज्ञा! महाराज!
दुष्यंत: शीघ्र! अतिशीघ्र!!!
दृश्य५
(महाराज दुष्यंत अपने अश्व पर सवार हो कण्व ऋषि के आश्रम पहुँचता है, कण्व ऋषि अपने अध्ययन में व्यस्त हैं, ऋषि-पत्नी साथ में बैठी हैं)
दुष्यंत: प्रणाम ऋषिवर!
कण्व: कौन है?
दुष्यंत: मैं पुरु पुत्र दुष्यंत अापको प्रणाम करता हूँ।
ऋषि-पत्नी: महाराज दुष्यंत!! 
दुष्यंत: जी मातृ श्री!
ऋषि-पत्नी: (क्षोभ के साथ) अपने राजसदन में मेरी पुत्री का अपमान करने से आपकी क्षुधा शांत नहीं हुई जो आप यहाँ तक चले आए राजा दुष्यंत!!
दुष्यंत: मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। मुझे कुछ भी याद नहीं था उस समय। लज्जित हूँ अपने कुकृत्य पर अौर देवि शकुंतला से क्षमा माँगने आया हूँ।
ऋषि-पत्नी: पुरुष अौर स्त्री का यही भेद है राजन् । पुरुष को कुछ भी याद नहीं रहता अौर स्त्री कुछ भी भूलती नहीं।
दुष्यंत: मैं क्षमा चाहता हूँ, मातृ श्री।
(अचानक शकुंतला का आना)
दुष्यंत: (शकुंतला से) देवि शकुंतला! मैं अपने कृत्य के लिए आपसे क्षमा माँगने आया हूँ। मुझ अभागे को…….
शकुंतला: आप कब से अभागे हो गए चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत। अभागे तो हम हैं जिन्हें प्रेम करने का अपमान झेलना पड़ता है। स्त्री जीवन की यही तो विडंबना है।
दुष्यंत:देवि लज्जित हूँ। अपने किए के लिए। मुझे क्षमा करें अौर राजसदन चलकर साम्रज्ञी का पद सुशोभित करें।
शकुंतला: साम्राज्ञी के पद का लालच नहीं है मुझे। दुख तो इस बात का है कि आपने मुझ पर विश्वास नहीं किया।
दुष्यंत: क्षमा करें देवि। अपने कृत्य पर लज्जित हूँँ। 
कण्व: शकुंतला! इसमें दुष्यंत का दोष कम अौर दुर्वासा के शाप का प्रभाव अधिक है। अब बिलंब करना ठीक नहीं। जाअो बेटी , दुष्यंत को तुम्हारी जरूरत है।
शकुंतला: जो आज्ञा पिता  श्री।
दुष्यंत: आभारी हूँ ऋषिवर।
(कण्व ऋषि के आश्रम के पास ही दुष्यंत के सैनिक पहुँच जाते हैं। अौपचारिक विवाह की तैयारी होती है)
सैनिक अौर आश्रम वासी: महाराज दुष्यंत की जय!!
सैनिक अौर आश्रम वासी: महारानी शकुंतला की जय!!
(मंच पर अंधेरा)
[पर्दा गिरता है]
{नृत्य}

जापान में सत्संग

जापान में आए हुए एक बरस से ज्यादा हो गया । यह एक खूबसूरत देश है । अनुशासन और दूसरे के प्रति सम्मान हमें सभी जगह देखने को मिलता है । राजधानी तोक्यो में भी जहाँ बहुसंख्य लोग रहते हैं धक्का-मुक्की, गाली-गुत्ता और लड़ाई-फसाद बहुत ही कम देखने को मिलता है। समय का सम्मान करना हम जापान से सीख सकते हैं । दूसरी विशेषता हमें यहाँ निजता के अधिकार के प्रति देखने को मिलती है। लोग दूसरों की व्यस्तता का आदर करते हैं । इसलिए मेल-जोल और गप्पबाजी का अवसर कम होता है। यह बात हमें खलती है। हमें का मतलब मैं और मेरे पाकिस्तानी सहयोगी सुहेल साहब तथा बंगाली भाषा की प्रो० सुभा दी को। लोग अत्यंत व्यस्त होते हैं। इसलिये एक-एक मिनट का सम्मान किया जाता है। हर व्यक्ति अपने काम में मगन रहना अपनी जवाबदेही मानता है। काम पहले है, बाकी बातें बाद में । इसलिए आप अपने काम के लिये कहीं भी जाइए आपका काम बिना किसी बाधा के बहुत जल्द हो जाता है। भ्रष्टाचार न के बराबर है इसलिए कोई किसी को परेशान नहीं करता । 
साहित्य का एक अध्यापक होने के नाते संवाद अौर गप्प का मेरा चस्का पुराना है। पर यहाँ इसकी संभावना कहाँ। छात्र हमेशा ही मेरे करीब रहे हैं । तो मैंने कुछ छात्रों से इसके बारे में चर्चा की । गप्प भी ज्ञान में इजाफा करता है, एेसा उनको बताया। उन्हें भी यह विचार पसंद आया। पर यहाँ तो प्रोफेसर लोग  इतने व्यस्त कि पूछो मत। अपने बगल के कमरे में रहने वाले हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो० मिज़ुनो जी को भी ई-मेल करके मिलना पड़ता है। दक्षिण एशिया अध्ययन विभाग के निदेशक प्रो० ताकेशि फुजिइ विश्वविद्यालय में ऐसे विद्वान हैं जो हिन्दी और भारतीय  परंपराओं में गहरी दिलचस्पी लेते हैं।वे दिल्ली विश्वविदयालय के छात्र भी रह चुके हैं। गप्प मारने के लिये उनका सानिध्य सबसे आवश्यक था। पर वे और भी व्यस्त हैं। मैं भी महीने में केवल 15-20 मिनट की एक मुलाकात ही कर पाता हूँ और केवल काम की बात तथा चाय का एक प्याला। अपनी एक ऐसी ही व्यस्त मुलाकात में मैंने उनसे शिकवे भरे अंदाज में कहा कि “आपको गप्प की परंपरा की शुरूआत यहाँ भी करनी चाहिए।” वे पहले तो आश्चर्य से मुझे देखते रहे फिर बोले कि विचार करुँगा। बात आयी-गयी हो गयी। मैं भी भूल गया। पर, एक दिन पता चला कि गप्प की परंपरा शुरू होने वाली है। हिन्दी अध्ययन के लिये एक कॉमन रूम अलग से निर्धारित है। उसकी संख्या है आठ सौ चालीस । एक दिन प्रो० फुजिइ जी ने सूचित किया कि आगामी शुक्रवार को ‘श्री सत्संग चौरासी’ की बैठक है। मैंने अनुमान लगा लिया कि यह मेरे आग्रह का ही परिणाम है। पर, नाम रोचक था और मैं जानने को उत्सुक था कि यह नाम उन्होंने कैसे सोचा। मेरे दिमाग में ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ का ख्याल सबसे पहले आया। फिर चौरासी सिद्ध भी दिमाग में आए। शुक्रवारी सभा भी। पर भ्रम बरकरार रहा। मैंने सोचा चलो कुछ दिन का इंतजार और सही। शुक्रवार आया। प्रो० फुजिइ, मैं और कुछ वरिष्ठ छात्र निर्धारित कक्ष में एकत्र हुए। साके (एक प्रकार की शराब) जापानी जीवन संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। शाम होते ही साके का भी आगाज हो जाता है और साके के बिना कोई सभा, सम्मेलन, परिचर्चा और गोष्ठी संभव नहीं। सो साके भी मौजूद थी । भारत में शराब कभी-कभार ही पीता था पर यहाँ यह लगभग साप्ताहिक कार्यक्रम है। और उसके बिना बात बनती नहीं।कमरे के बाहर ‘श्री सत्संग चौरासी’ का बोर्ड टंग गया था। अनेक चर्चाएँ होती रहीं । अज्ञेय, अमृतलाल नागर और बहुत से अन्य साहित्कारों पर । हिन्दी फिल्मों और भारतीय संस्कृति के अनेक पक्षों पर भी। थोड़ी देर बाद मैंने पूछा कि यह ‘ चौरासी ‘ क्या है? प्रो० फुजिइ ने मुस्कराते हुए जवाब दिया कि ‘कमरा नं० 840’ शून्य हटा दिया गया है, बस। अब इसकी तीसरी बैठक हो चुकी है तो संभावना है कि यह सत्संग चलता रहेगा और गप्प की यह परंपरा व्यस्त जापानी जीवन संस्कृति में नया शुकून पैदा करेगी। उम्मीद यह भी है कि अनेक अनलिखे संस्मरण और प्रसंग अनायास ही परिचर्चा में आएँगे अौर हमारे अनुभव को समृद्ध करेंगे ।